मौन भीतर की अवस्था है बाहर की नहीं

मेरी समझ में आँख बंद करके बैठ जन ध्यान नहीं है । और इस तरह की और भी बहुत से बातें हैं , अंत में मैं आप पर छोड़ती हूँ कि आप ध्यान को क्या समझते हैं । मेरी समझ ये कहती है कि सजगता में रहना ध्यान है पर मौन में ध्यान कैसे करें और मौन कि सीमा क्या है ? क्या अपने आप में बैठकर बोलना मौन का हिस्सा हो सकता है ?

मौन कि तीन स्थितियाँ होती हैं । पहली - वाणी का मौन । दूसरी - मन का मौन । तीसरी स्थिति में काष्ठ का मौन । पर ये शुरुवात होती है । जो गूंगा है उसको हम मौन में नही कह सकते । गूंगे आदमी के पास बोलने कि क्षमता नहीं होती । और उस शक्ति के बावजूद वो निर्णय करे कि ' मैं बात नहीं करूँगा ' । प्रश्न ये उठता है कि वो बात क्यूँ नहीं करेगा , किसलिए ? आप नाराज हो जाएँ या गुस्सा हो जाएँ तब भी आप चुप हो जाते हैं , दुखी हों , आप तब भी चुप हो जाते हैं । सिर्फ़ चुप हो जाना मौन नहीं है । चुप होने के पीछे कारण हैं । कारण कि समझ होनी चाहिए ।

अध्यातम कि दृष्टि से अगर कोई मौन होता है तो सबसे पहला कारण है कि वो अपनी शक्ति को समेटना चाहता है । जो बाहर को जा रही है , शक्ति है , वो उसको समेटेगा । दूसरा , कारण जब हम बोलते हैं । व्यर्थ बोलते हैं । बहुत कुछ व्यर्थ बोलते हैं । जो बात चार शब्दों में कही जा सकती है उसे हम चार सौ शब्दों में कहते हैं । और ये आदत बेहोशी में इस तरह शामिल हो चुकी है कि लोगों को पता भी नहीं चलता कि क्या बोल रहे हैं और कितना बोल रहे हैं । पूरी तरह मौन में जाने तक आदमी को स्वयं को इस कसौटी पर देखना चाहिए कि वो कितना ज्यादा बोलता है । बोलने पर नज़र , बोलने पर दृष्टि रखे । हम लोग दो अतियों पर रहते हैं या हम बहुत ज्यादा बोलेंगे या बहुत चुप रहेंगे ।

बहुत ज्यादा बोलना अगर नुक्सानदेह है तो कई बार न बोलना भी नुक्सानदेह होता है । मौन रख लिया है , और ऐसा फूहड़ है मूड है कि उसमें भी वो अभिमान बना लेता है कि बाकि बोलते हैं लेकिन मैं चुप रहता हूँ , बाकी लोग समय व्यर्थ कर रहे हैं , मैं गहरे मौन में हूँ । मौन होने का अभिमान हो जाता है । मेरे देखे , आदमी को पहले अपने बोलने पर दृष्टि रखनी चाहिए । और अगर इस तरह अपने बोलने पर दृष्टि रखेगा तो जल्दी ही समझ लग जायेगी कि कहाँ और कितना ज्यादा बोलता है । फ़िर उसके बाद मौन में प्रवेश करें । अगर ये देखे बगैर मौन हो जायेगा तो उए मौन में इतनी घबराहट होगी कि उसी घबराहट को दूर करने का तरीका निकालता है जिसे आपने लिखा है कि एकांत में बैठकर भजन गाते हैं । बोलना तो हो गया फ़िर । जब हम कहते हैं कि हमने बोलना बंद किया तो बोलना दूसरे से बंद किया लेकिन शरीर भी तो दूसरा ही है फ़िर इसके साथ क्यों बोलें । पर जो टेंशन बन जायेगी उसको रिलीज कैसे करें । उसे रिलीज करने के लिए वो गायेगा या मन्त्र करना शुरू कर देगा , बोलेगा । बोलना चाह रहा है , किसी और से नहीं बोल सकता तो अपने आप से ही बोलता है । ये कोई बहुत शुभ लक्ष्ण तो नहीं कि अपने -आपसे ही बोलने लग जाएँ । पागल आदमी अपने से ही तो बात करता रहता है , उसे किसी दूसरे कि जरुरत नहीं । कि कोई सामने हो फ़िर वो उससे बतियाय । वर्तालाप नहीं करता , पर वो बोलता है । तो मौन में किसी भी तरह का बोलना निषिद्ध होता है ।

पहली स्थिति आती है जुबान के मौन कि । अब जब जुबान चुप होगी तो शायद पहली बार आपको अपने मन को शोर सुनाई पड़ेगा । विचार का भी शोर सुने पड़ेगा । आँख के अंधे और कान के बहरे हैं क्योंकि अपने ही मन के शोर को नहीं जानते । पर शायद मन का शोर इतना अधिक है कि पूरे संसार के शोर को हम जमा कर दें तो भी वो कम पड़ेगा । वाणी से हम चुप होते हैं इसलिए ताकि हम मन तक अपने ध्यान को ले जा सकें और चेतना को अन्तर्मुखी कर सकें , मन कि दृष्टि जायेगी तब आप देख पायेंगे कि कुछ भी देखने से पहले , कुछ भी सुनने से पहले , या सहज भी जब सुनना होता है जब आप बोलते हैं , जब आप चलते हैं , जब आपके हाथ खुलते हैं , जब आपके शरीर में कोई भी क्रिया होती है , उस क्रिया के होने से पहले आपके शरीर में क्रिया होती है ।

मान लो आपने आँख बंद की है और मन ने ख्याल उठाया कि खुजली हो रही है तो खुजला लो । पहले मन में आया ख्याल , तो ही हाथ चले । अब जैसे साधक बैठा है , मैं फ़िर वापिस उसी स्थिति में ले चलती हूँ , साधक बैठा है और खुजली हो रही है , ये ख्याल आया और उसके साथ ही एक दूसरा ख्याल आया कि मन बेईमानी कर रहा है , मन सिर्फ़ ध्यान से परे करना चाह रहा है इसलिए मन ने झूद में खुजलाने का ये विचार खड़ा किया है वैसे खुजली हो नहीं रही । आपने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किया और मन के इस अलार्म को आपने इग्नोर कर दिया । थोड़ी देर तक खुजलाने जैसा भाव रहा फ़िर खतम हो गया । फ़िर तीसरा ख्याल आया कि देखा , बेईमानी पकड़ी गई , क्योंकि खुजली तो हो ही नहीं रही थी । है ये ख्याल लेकिन जो शरीर कि हरक़त होनी थी , हाथ खुजलाना था वो सब मूवमेंट नहीं हुई । आपने मन के ही तल पर ठीक कर दी ।

ध्यान में बैठे हो पैर सो गया , पैर हिला लूँ इस तरह के कई ख्याल उठे पर हर विचार के आते ही अगर हमने क्रिया में नहीं बदल दिया और उस विचार को समझा कि सच में क्या ऐसा हो भी रहा है ? धैर्य से काम लिया उस विचार को ही देखा तो थोड़ी देर में देखा कि ऐसा कुछ नहीं , और वो ख्याल भी विलीन हो गया और जो बॉडी कि मूवमेंट व्यर्थ कि होनी थी ध्यान में , वो भी नहीं हुई ।

अब अपने एक विचार के चलने पर जब तुम्हारा हाथ चलता है तो इसका मतलब आपके शरीर में जितनी क्रियायें हो रही हैं वो तब होतीं हैं , जब आपके मन में हलन - चलन होती है । पहले मन में आया है विचार , शरीर उसके बाद क्रिया करता है । पहले मन में उठेगा ख्याल , आँखें तब देखेंगी । अब आप आँख बंद करके विश्राम कर रहे थे , आवाज कोई कान में आई कि देख ! क्या है ? फट से आँख खुल गई , बिस्तर से उठ गया , खिड़की तक गए , बाहर गली में झांका तो देखा कि कुछ बच्चे लोहे कि छड़ के साथ खेल रहे हैं तो उसी की आवाज आ रही थी । देख लिया तो निश्चिंत हो गए और फ़िर वापिस आकर विश्राम में ख़लल जो आया वो मन के एक विचार से आया ।

बहुत सी स्थितियाँ आप देखते हैं अपने जीवन में । दिन से लेकर रात तक शरीर जो भी क्रियायें करता यहाँ तक की इसको थोड़ा और आगे लेकर चलना चाहूंगी मैं कि हमारे के शरीर भीतर बहुत सी क्रियायें होती हैं जो हमारे मन से जुड़ीं हैं । जैसे मन दुखी हो , तो कहने कि इच्छा लग जाए , मन में कोई चिंता आ जाए , मन में कोई दुःख आ जाए , मन में कुछ परेशानी हो रही हो , तो अजीब से पूरे शरीर में कुछ मीठा खाने कि तलब उठने लग जाती है । अब वो भूख नहीं थी , मन अपने से अपनी घबराहट को छिपा रहा था , उस घबराहट को उसने डायवर्ट कर दिया पेट में , अब लग रहा है कि शायद यहाँ कुछ है । यहाँ क्या है ? भूख है , तो कुछ खाने चले गए , भूख थी नहीं पर झूठ की भूख लग रही थी ।

ऐसे ही झूठ का सिरदर्द होता है , महिलाओं को अक्सर होता है । चार बजे के बाद से इनको सिरदर्द शुरू हो जाता है । सच में नहीं होता , मन अंदर ही अंदर खेल खेल रहा होता है । मन को ये समझ है कि अगर हम बीमार हैं या दुखी बैठेंगे , उसके बहुत सारे फायदे हैं , काम नहीं करना पड़ेगा । निक्कमे तो होते ही हैं , काम नहीं करना पड़ेगा , अटेंशन मिलेगी , घर के लोग आकर पूछेंगे , पति भी आकर पूछेगा और फिर बीमार हालत में कहते कि फिर घुमा लाओ , थोड़ी बाहर कि हवा खा लें , ऐसे तो नहीं ले जायेगा , वैसे कहें तो कहेगा कि थका हुआ हूँ फिर कभी चलेंगे , या कहे कि तुम्हीं हो आओ । इतनी चालबाजियां होती हैं । यूँ कहो कि आपका मन आपको ही चलता है और आप मजे से छले जाते हो , पता भी नहीं चलता । मन शरीर में झूठ के रोग खड़े कर सकता है ।

अब अगर ये मन कि ताकत समझ लग जाए और आप अपनी सहक्ति को विधायक उपयोग करें तो नतीजे दुसरे हो जायेंगे । जो रोग बने थे वो मिटाए जा सकते हैं । जो झूठ को भूख लग , लगके , खा , खाके मोटे हो रहे थे उससे बच सकते हो । अब विचार कोई उठे और आप तुंरत अगर उस पर अमल कर लेते हैं तो आप कोई बहुत समझदार व्यक्ति नहीं हैं । आप अपने ही मन को नहीं जानते । इसलिए मन कुछ भी कहे , उसे करने से पहले उस विचार कि सार्थकता को , उस विचार के मूल को , उस विचार कि गहराई को समझ लेना चाहिए । अब ये काम करने के लिये आपको निश्चिंत ही एक चीज कि आवश्कता है वो है सजगता । तो एक तरह से ध्यान क्या है ? ध्यान है सिर्फ़ जगह रहना । चूँकि आप सजग नहीं रहते हैं सीधे सजग नहीं हो पाते हैं इसलिए आपको मैं ध्यान कि विधियों के बहने तुम सजग हो जाते हो । अगर आप जल्दी से अपने जीवन में सजगता को ले आयें तो मुझे नहीं लगता कि ध्यान कि विधियों को सीखने के लिए मेरे पास आने कि जरुरत होगी । पर तुम्हें जरुरत पड़ेगी । वो इसलिए पड़ेगी क्योंकि बेहोशी तुम्हारी बहुत गहरी है । अब उस गहरी बेहोशी को तोड़ने के लिए जरुरत होती है कुछ बाहरी साधनों कि , कुछ बाहरी अवलम्बनों की । इसलिए अगर कोई मौन में जाना चाह रहा है और मौन का गहरा स्वाद लेना चाह रहा है , अब आपने लिखा कि ' घर में दिक्क़त होती है ' अब दिक्क़त तो होगी ही क्योंकि घर में परिवार है , पास - पड़ोस है , सगे - सम्बंधी हैं , कोई आएगा , कोई कहेगा कि ' तुम तो पागल हो गए हो , कोई कहेगा कि साधू हो गए हो , कहाँ गुरुओं के चाकर में पड़ गए । ' अब आप इतने सहनशील तो हैं नहीं । सब सुनकर तुम उत्तेजित हो जाओगे , क्रोध में आ जाओगे और मन उसकी बुरे या अच्छाई करने लग जायेगा या आप जिस ट्रैक पर चलना चाह रहे थे उस ट्रैक से बिगड़ जाओगे । इसलिए घर में साधना करने में जो भी दिक्क़त आए , आश्रमों का निर्माण इसीलिए तो हुआ है कि आप जयादा दिन न सही तीन , चार दिन का , सात , आठ दिन का , ग्यारह दिन का जो मौन है वो अगर आप करना चाह रहे हैं तो अच्छा ये रहेगा कि आप आश्रम में रहकर करो । अगर इस तरह कि सुविधा बना सकते हैं , यहाँ भोजन बनने कि फिकर नहीं , आरती के घंटे - घड़ियाल उठा देंगे । आपका कोई अड़ोस- पड़ोस वाला भी नॉक कर देगा कि आरती में चलें । अनुकूल वातावरण होगा ।

आश्रम में २१ दिवसीय एकांत मौन चल रहा है वो अपनी जगह पर । लेकिन एक ही कमरे में रहकर मौन कि उस और गहरी स्टेज में जाए , इससे पहले अच है कि कुछ दिन ऐसी ही नार्मल चलते - फिरते , आश्रम में रहते हुए मौन में रहे । एक ही कमरे कि जो सीमा है उसमें न रहे , बाहर आय , सत्संग में , दर्शन में बैठे । अगर कुछ सेवा करना चाहे , तो वो भी करे । या जहाँ सब लोग मिल रहे हैं अगर उसमें शामिल होना चाहे तो वो सब कंटीन्यू करे लेकिन मौन चलता रहे । तो मौन का यह लंबा अभ्यास , पर फिर वही बात आएगी कि अगर आप होश से नहीं करेंगे तो फिर इसमें भी परेशानी खड़ी कर देंगे । यूँ समझिये आप , कि अगर बेहोशी कि आदत को आप तोड़ते नहीं हैं तो फिर घर में रहो , बेहोश ही रहोगे । और बेहोशी को तोड़ना सीखना चाहते हैं तो घर में रहके थोड़ा सा मुश्किल होगा पर आश्रम में रहकर ज्यादा सहज होगा ।

कई बार ऐसा होता है कि आश्रम में ही रहने वाले किसी व्यक्ति से ज्यादा लगाव हो जाए तो लगता कि अच्छा नहीं अब संबंध बनने कि बीमारी है न , तो वो यहाँ भी बना लेता है । कई बार तो ऐसा हो जाता है कि वो इतने गहरे संबध बना लेते हैं कि वो ये भी भूल जाते हैं कि वो आश्रम में किसी लक्ष्य के लिए आए हैं । वहां पर भी वो पसंद कर लेता है कि यह अच्छा है ये नहीं अच्छा है । इससे बात करेंगे , इससे नहीं करेंगे । इस को बुलायेंगे , उसको नहीं बुलायेंगे । तुम लोगों के संबंध बना लेने कि जो कमीं हैं उसी कमीं को समझते हुए आश्रम में हर आदमी कोई एक ही काम को एक व्यक्ति नहीं कर रहा । अगर आप सोचते हैं कि आज अभिनव ने पत्र पकड़ के दिए तो अगले इतवार भी देगा तो इससे तुम दोस्ती बना लो , तो यह नहीं होगा , ये कहीं और होगा । ये क्यों करना पड़ता है ताकि ये जो मित्रतायें बना लेते हो फिर तुम्हारी पालिटिक्स शुरू हो जाती है । बीमार है न मन , ये जहाँ जाता है बीमारी फैलता है । तो फिर यह भूल जाता है कि घर के संबंधों से दुखी हो कर यहाँ आया और यहाँ भी वही सब करना शुरू कर देते हो । तो बेफकूफी का कोई अंत नहीं । लेकिन फिर घर कि अपेक्षा यहाँ पर मौन में रहना ज्यदा सहज होगा । तो तीन दिन को , सात दिन को , ग्यारह दिन को मौन में रहे । एक बार यह अनुभव ले लें फिर जब लगे कि मौन कि समझ आ गई , ख़ुद को देखने कि समझ आ रही है , चुप रहना अच लग रहा है फिर धीरे-धीरे जो कमरे में रह कर जो २१ दिन यह तप है इसमे चला जाए ।

कई लोग मैंने देखा कि वो सीधे २१ दिन के मौन में आ जाते हैं । पूछ लेते हैं कि हम २१ दिन के मौन में आ सकते हैं ? कमरा है ? पूछ कर आ जाते हैं । पर कभी भी थोड़ा मौन का स्वाद लिया नहीं , सीधे २१ दिन वाले मौन में चले गए । तो फिर कोई चौथे दिन भागता है । कोई छठें दिन भागता है , मुश्किल है रहना , कैसे रहेगा ? क्योंकि जो सारा समय बकबक करता रहता है , उसको अचानक एक कमरे में रहना तो सजा हो जायेगी ।

इसलिए सीधे २१ दिन मौन में जाने से पूर्व सात दिन का या ग्यारह दिन का सहज मौन करें , यहीं आश्रम में रह कर । सहज मौन में आप नार्मल सहज होकर जो भी आश्रम कि गतिविधियाँ हैं उसमें शामिल हों , पर रहे मौन । धीरे - धीरे समझ आ जाती है कि मौन कैसे रहा जाता है

ऋषि अमृत अक्टूबर - २००६