दुख भी है, मृत्यु भी है, विरह भी जलाए,
तब भी है आनंद, शांति, अनंत जगता रहे..
फिर भी प्राण नित्य-धारा,
हँसे सूर्य, चंद्र, तारा,
कुंज में विचित्र सुरों में बसंत आए..
तरंगे मिटें और तरंगे उठें,
फूल भी झरें और फूल खिलें..
क्षय नहीं है, न कोई शेष,
नहीं दैन्य का लवलेश,
उसी पूर्ण के चरण में चित्त शरण चाहे..
'रवीन्द्र-संगीत-सुधा' से
ऋषि अमृत अगस्त 2007