
जिन्हें पूर्ण गुरु मिल गया उन्हें भगवान से क्या लेना - देना । तो क्या फिर गुरु - सेवा ही काफ़ी है ? क्योंकि गुरु त्रिदेवों से भी ऊपर हैं , तो सिर्फ गुरु - वंदन ही क्यों न किया जाए ? क्या फिर भी ईश्वर कि प्राप्ति का प्रयास होना चाहिए ?
गुरु माध्यम है , गुरु मार्ग है , गुरु द्वार है , गुरु अन्त नहीं है । द्वार से गुजरा ही जाता है । द्वार पर बैठा नहीं जाता । सो गुरु के आशीष , गुरु के शब्द , गुरु कि वाणी , गुरु का दर्शन , गुरु का व्यक्तित्व , यह सब शिष्य को मदद देता है , ताकि वह अपने अन्तर कि यात्रा को अच्छे से कर सके । लेकिन अगर अन्तर कि यात्रा नहीं करे तो बहुत बार इसकी भी सम्भावना है कि धीरे - धीरे जो प्रेम है , वो कहीं न कहीं पोजेसिवनैस में बदल जाता है । एकाधिकार चाहते है फिर । ओर फिर यहाँ से समस्याएं शुरू हो जाती हैं । जैसे - ' में गुरु से इतना प्यार करता हूँ तो गुरु भी मुझे उतना ही करें या दूसरों को प्रेम क्यों करें , दूसरों को प्रेम न करें । '
जैसे मेरे जान्ने में एक बड़े मस्त संत , ओर उनके जो शिष्य साथ में रहते थे , बड़ी अगाध श्रधा उनकी अपने गुरु पर । पर उनलो एक अजीब - सी इन्सेक्योरीटी थी । वे दुसरे किसी शिष्य को अपने गुरु के करीब नहीं जाने देते थे । यह उनकी असुराख्षा कि भावना ऐसे आई कि अगर दुसरे आगे आ जायेंगे तो फिर हम पीछे हो जायेंगे । तो अगर हम पीछे हो जायेंगे तो फिर हमारा क्या होगा ? तो अजीब - से मन के फिर षड्यंत्र ओर राजनीति शुरू हो जाती है , जो अच्छी बात नहीं होती है । इसलिये गुरु से प्रेम अच्चा है , पर गुरु से बंध जाना अच्चा नहीं होता । तो लोग बंध जाते हैं , कभी - माभी प्रेम के नाम पर बंध जाते हैं ।
इसलिये अपने अन्तर के स्तोत्र कि खोज तो लाज़िम है , जरुरी है । अपनी साधना में उपलब्धि जो आपको होती है , वह आपकी होती है ओर वह आपके साथ होती है । शरीर से गुरु हमेशा साथ नहीं हो सकता है । अभी तो आप दूर से चल कर आये हो यहाँ पर , तो लगता है हम वापिस चले जायेंगे । पर जो यहाँ रहते हैं वे तो हमेशा ही साथ हैं । असल में वे भी हमेशा साथ कहाँ होते हैं ? उनको भी समय पर ही मिलती हूँ । क्योंकि उनको उनके काम करने हैं । उनको जो भी उनकी सेवा मिली है , उनको उसमें व्यस्त होना है , ओर हम हमारे कार्य में या एकांत में या अपने कमरे में है । तो अन्तत: तो आपको आपके ही साथ रहना है , आपके ही साथ , आपके अपने ही साथ । तो फिर जब अपने आपके ही साथ होना है , तो अपने आप का पता होना चाहिये । अपने मन का पता होना चाहिये , मन कि खोज होनी चाहिये , समझ होनी चाहिये ।
इसलिये गुरु से प्रेम को मुक्ति का मार्ग बनाना चाहिये , न कि गुरु से प्रेम को बंधन बना लेना चाहिये । सो जहाँ भी बन्धन आ जाता है , एक अजीब - सी तकलीफ शुरू हो जाती है फिर । जैसे - कई गुरु हैं वे अपने चेलों को बाँध देते हैं कि आप हमारे अलावा किसी को नहीं सुनेंगे । हमारे अलावा ओए कहीं नहीं जायेंगे । तो फिर वे खोज - ख़बर करवाते रहेंगे , कोई गया तो नहीं । पता लगे तो वे भी दुखी होते है उस बात से । तो बन्धन नहीं होना चाहिये ।
प्रेम अच्चा है , प्रेम बहुत अच्चा है । तो गुरु वह द्वार है , यहाँ से यात्रा शुरू होनी चाहिये । यहाँ यात्रा ख़त्म नहीं हो जाती । गुरु के संग से यात्रा आसान हो जाती है , सुविधाजनक हो जाती है , सुन्दर हो जाती है ,प्रेममयी हो जाती है ।
गुरु का प्रेम , गुरु का प्यार स्वयम के जागरण कि ओर एक कदम होना चाहिए । गुरु के लिये आपका प्रेम रूकावट नहीं होना चाहिए एक दीवार नहीं होना चाहिए। इसलिये हमेशा याद रहे कि गुरु द्वार है , ओर इस द्वार से हमें पार जाना है । द्वार पर बैठा नहीं जाता । और द्वार के समीप जाना भी आवश्यक है और उससे पार हो जाना भी । वे लोग जो इस द्वार पर बैठ जाते हैं , वे साधना को अपने लिए मुश्किल कर लेते हैं । इसलिये गुरु से खूब प्रेम करो , परन्तु इस प्रेम को बन्धन मत बनने दो । अगर यही बन्धन हो गया तो फिर स्वतंत्रता कैसे होगी ? प्रेम तो आजाद करता है , प्रेम बन्धन नहीं बनता ।
ऋषि अमृत - जुलाई २००७