परमात्मा कि अनुभूति





मिट्टी दा कल बुत बना के विच वड़ बैठा आपे
आपे धिंयाँ आपे पुतर आपे माई बापे
बुल्लेशाह दी जात की पूछदा हैं सब किछ आपे आपे

बुल्लेशाह कहते हैं , जिसे तुम बुल्लेशाह नाम से पहचान रहे हो , उसमें भी वो परमात्मा ही है । परमात्मा को कहीं से बुलाना नहीं पड़ता , परमात्मा तो तुम्हारे भीतर मौजूद ही है । पर यूँ सम्झेये की वो है तुम्हारे ही मन में ओर इस मन के ऊपर विचारों की , कल्पनाओं को , वासनाओं की , त्रिश्नाओं की तहें जमी पड़ी हैं ।

हमने अम्बार लगा दिए हैं इन सभी परतों के ! इन परतों के नीचे परमात्मा छिपा बैठा है , दब के रह गया है । सौ किस्म के परदे बना दिए हैं कुढ़ तुम्हारे ही मन ने ! अविद्या ओर माया का एक तरह का पर्दा हर जीव को जमन के साथ ही मिलता है । पर इस पर भी जीव ने खुद ओर कितने ही परदे मन के ऊपर चदा दिए हैं ।

तुम्हारे मन में कितना कुछ भरा पद अहै , उसको देखना हो तो ................ ध्यान तो नहीं करना , ऐसे ही खाली हो करके बैठ जाना कमरे में ! अकेले बैठना ! न टी . वी , न रेडियो , न क़िताब , न अखबार , न माला , न कुछ और ! कोई चीज नहीं रखना ! बस निपट अकेले खाली हो करके बैठ जाना ! कमरे में कोई तस्वीर भी नहीं रखना , फर्नीचर भी कोई नहीं रखना ! अकेले तुम हो , और जमीन ! दीवारें भी खाली हों ! बैठ जाना ऐसे कमरे में आँख खुली छोड़के और मन में जो - जो विचार आते जायेंगे , उन सभी विचारों को अगर हो सके तो लिखते जाना ये फिर अगर लिख न सको , तो देखते जाना कि आज देखेंगे इस मन रुपी संदूक में क्या कुछ भरा पड़ा है ।

आप पाओगे कि इतना कुछ भरा है , सारा अंतहीन है । निकलता ही चला जायेगा ! जैसे , जादूगर जब जादू दिखता है , तो पेटी खोलता है अपनी , उस पेटी में से रंग रंगीन कपड़े कई - कई मीटर लम्बे निकलते आते हैं । उसी में से वो कबूतर भी निकाले जाता है । उसी में से लड़की भी बाहर निकल आती है । उसी में से कई - कई किस्म का सामान भी निकलता है । लगता है , पेटी तो इतनी सी है ओर इस सामान से पूरा मंच भी गया है उसका । पूरा स्टेज लबालब भर जाता है ।

कहाँ से निकल रहा है यह सामान ? देखने वाला ताली बजाता है कि जादू दिख रहा है । बात यह है कि जादू तुम खुद भी करना जानते हो । वह जादू कैसे देखोगे ? किसी दिन अपने मन कि पिटारी को खोल के बैठना । मन में रागद्वेष
, सुख - दुःख कि घड़ियाँ , तुम्हारे घर में या आस - पास हुई मृत्यु कि और जन्म कि घड़ियाँ , तुम्हारे बचपन कि यादें , मित्रों कि यादें , दुश्मनों कि वारदातें ये फिर निकलता आएगा सब कुछ ।

घर पड़ोस के रिश्तेदारों और मित्रों के और पता नहीं किन-किन के ख्याल आते जायेंगे । कुछ धर्म के भी ख्याल , कहीं साधुओं , गुरुओं और महात्माओं के ख्याल ! कहीं पीरों पैगम्बरों के ख्याल ! कहीं दुनियादारी का ख्याल । फिर इसी दुनियादारी के ख्याल में ही कहीं सत्वगुण के ख्याल भी निकलने शुरू होगे ।निकलते ही चले आयेंगे !

इतना दबाया है इस मन को तुमने विचारों कि तहों में ! विचारों कि इस भीड़ के साथ मन कैसे अपने भीतर कि निस्तब्धता को , भीतर कि शांति को जान पाएगा !

जैसे , पुरानी स्त्रियों की आदत होती थी कि घर में जो भी रूपया - पैसा उनके पास होता था , वह संदूक में , ट्रंक में कपड़ों की जो सबसे निचली वाली थ होती थी , उसमें रखा करती थीं । लगता था सुरक्षित रहेंगे ।

फिर कभी - कभी जब चाहिए होते , तो खोजती रहती , पर मिलते नहीं थे । तो लड़ाई भी हो जाया करती थी घर में कि ' किसने निकाले पैसे ? ' देवरानी ने निकाले कि जेठानी ने निकाले कि किसी बच्चे ने ? किसने निकाले पैसे ? पर एकदम याद आता है , तो पता चलता कि अपनी तरफ से तो मैंने कपड़ों के सबसे निचे रखे थे । पर वो नीचे न जा करके एक साड़ी कि थ में आ गए थे । तो पैसे तो उसी थ के अन्दर पड़े थे और खोज रही थी बिलकुल नीचे ! वहन तो पैसे थे ही नहीं । जहाँ थे वहाँ खोज नहीं रही । जब पूरा सामान खोलती , तो पता चलता ।

ऐसे तो तुम्हारे मन की सब तहों , मन के विचारों , मन के संकल्पों और विकल्पों को अगर उघाड़ लो तुम ठीक से , तो सबसे नीचे एक ' वही ' मिल जाएगा । फिर पता चलता है कि जो सर्वाधार है , वही मेरे इस मन का भी आधार है । उस आधार से परिचित होने के लिये अपने ही मन को उघाड़ना जरुरी है ।

तो ध्यान क्या है ? धयान है मन कि पर्तों को उघाड़ना । पर्त - दर - पर्त खोलते चले जाएँ । विचार दर विचार खोलते चले जाओ अपने मन को ! याद रहे , जब आप ध्यान में बैठें हो .... विधि कोई भी रहे , पर जब भी ध्यान में बैठें और उस समय अगर कोई विचार उठे , तो उस विचार के बारे में निरपेक्ष बने रहो , असंग बने रहो ! उससे नाता न जोड़ो !

विचार चाहे सुख का हो या दुःख का हो ! ख्याल चाहे अच हो या बुरा हो ! कोई भी ख्याल हो । जब आएगा मन में , तो उसे ऐसे देखें जैसे आप सड़क किनारे खड़े हों और आती - जाती गाड़ियों को देख रहे हो कि कौन कौन से गाड़ियाँ गई ।

आपसे ऐसा कहा जाए कि शाम तक यहाँ बैठ के देखते रहें कि जो भी गाड़ियाँ आ - जा रहीं हैं , उन सभी गाड़ियों को आते जाते हुए आप तब तक देखते रहें जब तक आप खुद ही किसी गाडी में बैठ के वहाँ से चले ही ना जाओ ! कोई मित्र आ गया , आप उसके साथ गाडी में बैठ के चले गए तो बाद में उस सड़क से और कौन - कौन सी गाड़ियाँ गुजरी उसकी खबर आपको नहीं रहेगी !

तो आज में आपको जिस विधि से ध्यान में ले जाना छह रही हूँ , इस विधि को आप यूँ समझिये ...... मन से अलग हो करके मन में आने - जाने वाले सभी विचारों को देखते रहें । दरिये नहीं , घबराइए नहीं , क्रोधित मन होइए कि मेरे मन में ऐसे विचार क्यूँ आ रहे हैं । जैसे भी विचार आ रहें हो , वे विचार आप ही ने कभी डाले होंगे अपने मन में ! याद रहे ! जो भी संस्कार या विचार मन में हमारे आते रहते हैं , वे किसने डाले हैं मन में ? किसी और ने नहीं , तुम्ही ने डाले हैं । तो अपने मन कि ये सभी पर्तें तुम उघाड़ोगे , तो जो दुनिया भर के विचार आते रहेंगे , उन विचारों से लड़ना नहीं , उन विचारों को असंग होके देखते रहना । अगर आप मन से लड़ने लगेंगे , तो उस लड़ाई में जीतेगा तो मन ही ! तुम नहीं जितने वाले ! तुम इस लिये नहीं जीत पाओगे क्यूंकि तुम्हे अभी तुम्हारे अपने निजस्वरूप की होश है ही नहीं और मन तुम्हारा अभी पूरी ताकत में है । आप मन से ना जीत पाओगे !

ध्यान का अर्थ ये नहीं की आप जबरदस्ती विचारों को रोकें । ध्यान का अर्थ ये है की आप जागरूक होकर असंग होकर , अपनी देह और मन को द्रष्टा भाव से देखें । द्रष्टा भाव से देखने से क्या होगा ? बस यही होगा कि एक विचार उठा और अगर आप निरपेक्ष बने रहो , आप असंग बने रहो , तो कुछ देर तो वह विचार अपना तमाशा दिखाएगा और जब तुम उसको दुर्लक्ष करोगे , तो विचार अपने आप विलीन हो जाएगा !

जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि


सिर ते टोपी ते नियत खोटी
ऐवें मथ्था कानू घसाइदा
क्यों घिसा रहा है मथ्था अपना मस्जिद में जब तेरी नियत खोटी है ब्राह्मण वाद , कटटर वाद का खण्डन करते हुए दूसरी जगह कहते हैं -
टके टके शिव शंकर बेचे
पा पा हुण्डी पेट है लोचे
दक्षिणा इकट्ठी करता है , खा खा के पेट बड़ा करता है और एक एक आणे में पुण्य बेच देता है जब कहते कि तुम्हारे लिए यज्ञ अनुष्ठान मैं कर देता हूँ , दक्षिणा तुम दे देना , पुण्य तुमको दे दूँगा । इसके बावजूद आज की इस काफी में बाबा बुल्लेशाह कह रहे हैं कि इस मौलवी के रूप में भी तू ही है । मेरे मालिक , तू ही है । तू ही है जो ' सुन्नत फर्ज दसेंदे हो '

इस्लाम में शिया और सुन्नी दो मुख्य वर्ग हैं । उसके इलावा और भी हैं । बोहरी है , सैययद है , कादियानी हैं , लेकिन यहाँ उन्होंने दो का ही ज़िक्र किया । कहीं तो तू मौलवी है , 'शिया' और कहीं तू सुन्नी है ।
किते राम दुहाई देंदे हो
कहीं तू मेरे मालिक , राम नाम कि अलख जगा रहा है । और कहीं -
मथ्थे तिलक लगाइदा
कहीं तू माथे पर तिलक लगा के , त्रिपुंड लगा के बैठा है । माने , कहाँ तो मौलवी और कहाँ त्रिपुंड धारी । पर - 'किस थीं आप छुपाइदा' पर मेरे से छुपेगा अब कैसे ।

ब्रह्मदृष्टि को प्राप्त , कौन होगा , ब्रह्मदर्शन , कौन कर पायेगा ? जो पहले अपने आप को चैतन्यरूप अनुभव करे । अंधे को बाग़ बहारों से क्या मतलब ! आँखें न हो और अंधे को कहो 'चल, तुमको मुग़ल गार्डन घुमा लायें, काश्मीर का शालीमार बाग़ दिखा लाएँ' । वो कहेगा , 'मेरे किस काम का ? हाँ , में जाऊंगा बाग़ में तो ताज़ी हवा का सुख ले सकता हूँ, फूलों कि खुशबू सूंघ सकता हूँ लेकिन फूलों के रंग न देख पाऊंगा, कलियों को खिलता तो न देख पाऊंगा । जब देख नहीं सकता हूँ तो जून ही क्यों ? '

देखने के लिए आँख चाहिए और आँख अगर सही न हो तो आँख को पहले सही कराना होगा । ऐसे ही अनन्त चैतन्य सच्चिदानंद हर घाट में मौजूद है , पर वो हर घाट में दिखे किसको, उसको जिसकी आँखें सही हों। जिसकी अपनी आँख सही नहीं , वो मंदिर में जा करके भी सिर्फ यही देखता है कि भगवान् बहुत अमीर है ।

कुछ साल पहले जगननाथ पुरी में चोरी हुई । हीरे के श्रृंगार , कुछ जेवर थे चुराए गए । दुसरे दिन मिल भी गए , मंदिर के ही कुँए में मिले । चोर ने वहाँ पर डाले होंगे कि सही वक्त पर निकाल लेगा। पर वो जो खोजी कुत्ते होते हैं पुलिस के वे सूँघ करके कुँए कि तरफ बताने लगे । पुलिस वालों ने आदमी भेजे , जेवर मिल गए ।

माने , अगर भावना सही नहीं हा तो मंदिर में जा करके भी वो यही देखेगा कि यहाँ कितना माल मिल सकता है । कोई मूर्तिकार जो अपनी कला से प्रेम करता है वो मंदिर में चला जाए तो वहाँ के शिल्प को देखेगा कि ये किस सदी कि मूर्ति है , कैसी बनी है , कैसी नहीं बनी है । दक्षिण भारत कि है या उत्तर बहरत कि है । किस तरह के इसके रंग हैं , किस तरह इसको छेदन किया गया । पत्थर कैसा था । वो ये देखेगा ।

अमृतसर के दरबार साहब में एक बहार से आये हुए ' एन आर आई' सिक्ख , पहली बार गये । दर्शन करने को बड़ी श्रद्धा से गए । बाद में कहते । ' यहाँ तो बाबा बहुत अमीर है' । महाराजा रणजीत सिंह द्वारा भेंट कि हुई हीरे कि कलगी , सोने चांदी के दरवाजे ।

जब वो गए वो दिन भी ऐसा था , जब वो पूरा खजाना दिखाया जाता है । नौलखा हार , उस ज़माने में उसकी कीमत नौ लाख थी । जितना चढ़ावा चढ़ा है , सब वहाँ पर लगाया गया था , दिखया गया था । कहता, ' यहाँ बाबा बहुत अमीर है' । माने , लोभी आदमी मंदिर गुरुद्वारे भी जाता है तो ये देखता है कि यहाँ का भगवान अमीर है और यहाँ का भगवान गरीब है । जैसी दृष्टि वैसी ही सृष्टि उसको दिखती है ।

एक बार ठाकुर रामकृष्ण को दक्षिणेश्वरमंदिर के मैनेजर जो रानी रासमणि के जवाई भी वे इनको अपने साथ एक नाचने वाली के घर ले गए । कहते , आज मेरे साथ चलो। चले गए साथ में । अब वेश्यालय है , नर्तकी का घर है , श्रृंगार रस कि जगह है और रामकृष्ण तो है साधु बाबा । बैठाया , तो बैठ गए । उसने नाच शुरू किया। रामकृष्ण देख रहे हैं ।

वो वेश्या थोड़ी हैरान भी हुई कि ये किसको ले आये हैं अपने साथ . पर उसको तो पैसे से मतलब है कि अमीर आया है , चढ़ावा आज अच्छा मिल जाएगा । तो उसने गाना शुरू किया , नाची । अब वो तो नाच रही है , गा रही है और रामकृष्ण इस वेश्या को देखे भाव विभोर हो गुए , आँख बंद हो गई , आँख से आसूँ बहने लग गए और ' माँ ! माँ ! माँ ! ' चिल्लाये जा रहे रहे हैं ।

नर्तकी तो एक दम घबरा गई कि ये क्या । उसका गाना सुनके लोग उठते हैं पैसा फैंकने के लिए , वाह वाही करने के लिये , कुछ भेंट देने के लिये । पर ये कैसा आदमी है कि पैरों में गिर गया और ' माँ , माँ , माँ ' चिल्ला रहा है । चिल्लाते चिल्लाते वहीँ बेसुध हो गए । उसने झटपट अपने पैर हटाये , नाच गाना बंद , लोग हैरान ।

वो वेशालय मंदिर बनाई गया रामकृष्ण कि इस भाव समाधी के कारण । एक नर्तकी का राजसी स्थान परम सात्विक मंदिर जैसा हो गया राम कृष्ण की इस भाव समधी के कारण ।

रामकृष्ण की इस समाधी का दर्शन करके नर्तकी हाथ जोड़ के उनके करीब बैठ गई और फिर जब वापिस सुध आई तो उसने कहा , ' आपने मेरे पैर क्यों पकड़े ? इतना पाप मेरे सिर क्यों चढ़ाया आपने ? में तो एक नीचा काम करने वाली , गाने वाली , नाचने वाली स्त्री और आप जैसा महापुरुष !' क्योंकि तब तक सब मालूम हो गया था कि ये हैं कौन । कहती ' आपने ऐसा क्यों किया ? ' रामकृष्ण कहते ,' न , तू तो मेरी माँ है , मेरी जगदम्बा माँ ' !

वो एक वेश्या में भी जगदम्बा देखते , वो एक नाचने वाली में भी काली का स्वरूप देख सकते । अब ये देखने का कमाल हुआ । देखना कि आँख जैसी हो वैसा ही फिर दीखता भी है ।

ऐसे ही सच्चिदानंद व्यापक आधार अधिष्ठान परमात्मा का दर्शन कौन करे , वही करे जो पहले अपने मन कि नींद से जगा है , मन के बंधनों को खोला है जिसने । राग द्वेष अभिनिवेश वासनाओं से चित को हटाया है , चित को समाधान में लाया है , वैराग्य में लाया है , प्रेम में लाया है और चिन्तन करते - करते भीतर उतरता है । जो शोध करता है वही बोध पता है । जो शोध नहीं करता वो भोध नहीं पता ।

ऋषि अमृत २००३

गुरु द्वार है


जिन्हें पूर्ण गुरु मिल गया उन्हें भगवान से क्या लेना - देना तो क्या फिर गुरु - सेवा ही काफ़ी है ? क्योंकि गुरु त्रिदेवों से भी ऊपर हैं , तो सिर्फ गुरु - वंदन ही क्यों किया जाए ? क्या फिर भी ईश्वर कि प्राप्ति का प्रयास होना चाहिए ?

गुरु माध्यम है , गुरु मार्ग है , गुरु द्वार है , गुरु अन्त नहीं है द्वार से गुजरा ही जाता है द्वार पर बैठा नहीं जाता सो गुरु के आशीष , गुरु के शब्द , गुरु कि वाणी , गुरु का दर्शन , गुरु का व्यक्तित्व , यह सब शिष्य को मदद देता है , ताकि वह अपने अन्तर कि यात्रा को अच्छे से कर सके लेकिन अगर अन्तर कि यात्रा नहीं करे तो बहुत बार इसकी भी सम्भावना है कि धीरे - धीरे जो प्रेम है , वो कहीं कहीं पोजेसिवनैस में बदल जाता है एकाधिकार चाहते है फिर ओर फिर यहाँ से समस्याएं शुरू हो जाती हैं जैसे - ' में गुरु से इतना प्यार करता हूँ तो गुरु भी मुझे उतना ही करें या दूसरों को प्रेम क्यों करें , दूसरों को प्रेम करें '

जैसे मेरे जान्ने में एक बड़े मस्त संत , ओर उनके जो शिष्य साथ में रहते थे , बड़ी अगाध श्रधा उनकी अपने गुरु पर पर उनलो एक अजीब - सी इन्सेक्योरीटी थी वे दुसरे किसी शिष्य को अपने गुरु के करीब नहीं जाने देते थे यह उनकी असुराख्षा कि भावना ऐसे आई कि अगर दुसरे आगे जायेंगे तो फिर हम पीछे हो जायेंगे तो अगर हम पीछे हो जायेंगे तो फिर हमारा क्या होगा ? तो अजीब - से मन के फिर षड्यंत्र ओर राजनीति शुरू हो जाती है , जो अच्छी बात नहीं होती है इसलिये गुरु से प्रेम अच्चा है , पर गुरु से बंध जाना अच्चा नहीं होता तो लोग बंध जाते हैं , कभी - माभी प्रेम के नाम पर बंध जाते हैं

इसलिये अपने अन्तर के स्तोत्र कि खोज तो लाज़िम है , जरुरी है अपनी साधना में उपलब्धि जो आपको होती है , वह आपकी होती है ओर वह आपके साथ होती है शरीर से गुरु हमेशा साथ नहीं हो सकता है अभी तो आप दूर से चल कर आये हो यहाँ पर , तो लगता है हम वापिस चले जायेंगे पर जो यहाँ रहते हैं वे तो हमेशा ही साथ हैं असल में वे भी हमेशा साथ कहाँ होते हैं ? उनको भी समय पर ही मिलती हूँ क्योंकि उनको उनके काम करने हैं उनको जो भी उनकी सेवा मिली है , उनको उसमें व्यस्त होना है , ओर हम हमारे कार्य में या एकांत में या अपने कमरे में है तो अन्तत: तो आपको आपके ही साथ रहना है , आपके ही साथ , आपके अपने ही साथ तो फिर जब अपने आपके ही साथ होना है , तो अपने आप का पता होना चाहिये अपने मन का पता होना चाहिये , मन कि खोज होनी चाहिये , समझ होनी चाहिये

इसलिये गुरु से प्रेम को मुक्ति का मार्ग बनाना चाहिये , कि गुरु से प्रेम को बंधन बना लेना चाहिये सो जहाँ भी बन्धन जाता है , एक अजीब - सी तकलीफ शुरू हो जाती है फिर जैसे - कई गुरु हैं वे अपने चेलों को बाँध देते हैं कि आप हमारे अलावा किसी को नहीं सुनेंगे हमारे अलावा ओए कहीं नहीं जायेंगे तो फिर वे खोज - ख़बर करवाते रहेंगे , कोई गया तो नहीं पता लगे तो वे भी दुखी होते है उस बात से तो बन्धन नहीं होना चाहिये

प्रेम अच्चा है , प्रेम बहुत अच्चा है तो गुरु वह द्वार है , यहाँ से यात्रा शुरू होनी चाहिये यहाँ यात्रा ख़त्म नहीं हो जाती गुरु के संग से यात्रा आसान हो जाती है , सुविधाजनक हो जाती है , सुन्दर हो जाती है ,प्रेममयी हो जाती है

गुरु का प्रेम , गुरु का प्यार स्वयम के जागरण कि ओर एक कदम होना चाहिए गुरु के लिये आपका प्रेम रूकावट नहीं होना चाहिए एक दीवार नहीं होना चाहिए इसलिये हमेशा याद रहे कि गुरु द्वार है , ओर इस द्वार से हमें पार जाना है द्वार पर बैठा नहीं जाता और द्वार के समीप जाना भी आवश्यक है और उससे पार हो जाना भी वे लोग जो इस द्वार पर बैठ जाते हैं , वे साधना को अपने लिए मुश्किल कर लेते हैं इसलिये गुरु से खूब प्रेम करो , परन्तु इस प्रेम को बन्धन मत बनने दो अगर यही बन्धन हो गया तो फिर स्वतंत्रता कैसे होगी ? प्रेम तो आजाद करता है , प्रेम बन्धन नहीं बनता

ऋषि अमृत - जुलाई २००७