जल नेति






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प्राचीन योगियों ने वैज्ञानिक तरीके से कुछ क्रियाओं का वर्णन किया है , जिससे साधक अपने शरीर और मन की शुद्धी कर आध्यात्मिक उन्नति कर सके । इस पथ पर मन की शुद्धी का जितना महत्व है उतना ही महत्व शरीर की शुद्धी का भी है । शरीर का शुद्धिकरण इस मार्ग पर चलने वाले साधक के लिये प्राथमिक आवश्यकता है । शरीर में अशुद्धियों के रहते हुए भीतर सुप्त सहक्तियों का जागरण असम्भव है । योग में शरीर की शुद्धी पर विशेष महत्व दिया गया है । इस उदेश्य के लिये योग में आसन - प्राणायाम के साथ - साथ हठयोग का भी वर्णन है , जिसके अंतर्गत शरीर के शुधिकर्ण के लिये कुछ यौगिक प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है । इसे षट्कर्म कहते हैं । षट्कर्म के अंतर्गत ६ कियों का वर्णन है - नेति , धौति , नौलि , बस्ति , कपालभाति और त्राटक

नेति की क्रिया का उदेश्य नासिका - प्रदेश का शुद्धिकरण है । इसमें जल नेति और सूत्र नेति की क्रियाएँ आती हैं ।

जल नेति की सम्पूर्ण विधि इस प्रकार है -

आवश्यक सामग्री

जल नेति के लिये एक विशेष प्रकार का लोटा लें , जिसमें नमक मिला हुआ कुनकुना पानी हो । प्रति आधा लीटर पानी में एक चाय का चम्मच नमक हो । पानी उतना ही गर्म हो जितना नासिका - छिद्र में से आसानी से प्रवाहित हो सके । शरीर के तापमान के उपयुक्त पानी होना चाहिए ।

विधि

१ सर को धीरे - धीरे दाहिनी ओर झुकाएं और लोटे की नली (टोंटी ) को धीरे से बाएं नथुने के भीतर डालिए । साथ ही लौटे को इस विधि से ऊपर उठाइए कि जल का प्रवाह बाएं नथुने में से ही हो ।

२ इस विधि को करते समय मुंह को पूरी तरह खुला रखें और श्वास क्रिया नासिका के बदले मुहं से ही हो ।

३ जल का प्रवाह बाएं नासिका - छिद्र से भीतर जाकर दाहिने नथुने से बहार आ जायेगा । यदि लौटे कि स्थिति एवं सर का झुकाव सही हो तथा श्वास क्रिया मुहं से हो तो यह क्रिया स्वाभाविक रूप से होगी ।

४ लगभग २० सेकेंड तक जल का स्वतंर प्रवाह बाएं नासिका से दायीं नासिका में होने दीजिये ।

५ अब लौटा हटा लीजिए ।

६ इस विधि को करने के पश्चात सबसे महत्वपूर्ण बात है कि नासिका में पानी शेष न बचे । इसके लिये भस्त्रिका प्राणायाम की भांति तीव्र श्वसन से नासिका को स्वच्छ करना चाहिए । सहवास छोड़ने की गति अत्यधिक तीव्र न हो , इससे क्षति पहुँच सकती है ।

७ अब असी क्रिया को दाहिने नथुने के साथ दोहराएँ । दाहिने नथुने में लौटे की टोंटी को लगाइए । बायीं ओर सर को झुकाइए । जल का प्रवाह दहिने नथुने में से होता हुआ बाएं से बहार आ जायेगा । इस प्रकार ऊपर वर्णित किया की पुनरावृति किजिए ।

नासिका को जल - रहित करना


नासिका में बचा हुआ शेष पानी यदि बहार नहीं निकालें तो इससे क्षति पहुँच सकती है । इसलिये अब निम्न विधि के अनुसार नासिका को पूर्णत: स्वच्छ एवं शुष्क किजिए ।

१ दोनों पैरों को परस्पर समीप रखते हुए खड़े होकर दोनों हाथों को पीछे बांधकर रखिए ।

२ कमर से सामने की ओर झुकिए । सर ऊपर उठा रहे । ३० सेकेंड तक इस स्थिति में नासिका का पानी बहार आ जायेगा । झुकी स्थिति में ही नासिका से ५ बार धौंकनी की तरह तीव्र श्वसन - क्रिया किजिए ।


३ अब सीधे खड़े हो जाइए ।

४ एक नथुने को दबाकर बंद कर , खुले नथुने से तीव्र गति से ३० बार श्वसन - क्रिया किजिए । श्वास को छोड़ने पर बल डालिए ताकि नासिका - छिद्र से नमी बाहर आ जाए ।

५ एक नथुने से कर चुकने के बाद दुसरे नथुने से भी उपरोक्त क्रिया किजिए ।

६ दोनों नासिका - छिद्रों से इसी क्रिया को दोहराइए ।

इस सरल क्रिया के उपरान्त नासिका में कोई जल - कण नहीं रह जायेगा । यदि कुछ जल शेष रह जाए तो पूर्ण जल के निकास तक इस क्रिया को किजिए ।


निर्देश

जिन व्यक्तियों की नासिका में रचनात्मक अवरोध हैं वे इस क्रिया का अभ्यास करने में समर्थ नहीं होंगे । ऐसी स्थिति में उन्हें सूत्र - नेति का अभ्यास करना चाहए । प्रारम्भ के कुछ दिनों तक अभ्यास के उपरांत आँखों में भी लालिमा आ सकती है । प्रतिदिन प्रात: या जुकाम की अवस्था में इस विधि को आप कर सकते हैं ।

सावधानी


अच्चा रहेगा कि पहले कुछ देर तक इस विधि को किसी योग - शिक्षक के निर्देश के अनुसार ही किजिए । जल का प्रवाह सिर्फ नासिका में से होना चाहिए । यदि गले या मुंह में जल का प्रवेश हो जाए तो समझ लीजिए कि सर की स्थिति सही नहीं है । अत: सिर की स्थिति में इस भांति सुधर किजिए कि पानी का बहाव नासिका में ही हो । जल नेति के उपरांत नासिका को पूर्णत: शुष्क कर लीजिए , अन्यथा उसमें उत्तेजना उत्पन्न हो जायेगी तथा जुकाम में कष्टप्रद लक्षण धिखई देने लगेंगे ।

जल नेति का उदेश्य नासिका - प्रदेश को स्वास्थ्य प्रदान करना है , अत: जब रेचक क्रिया को करें तो अधिक बलपूर्वक न करें इससे नासिका से रक्त - स्त्राव कि दीर्घकालीन बीमारी की अवस्था में योग्य निर्देशक की सलाह के बिना नेति का अभ्यास न करें ।

जल नेति का अभ्यास नासिका की अशुद्धियों का निष्कासन करता है । जुकाम के उपचार में मदद करता है । इसके अभ्यास से कान , आँख तथा गले की अनेक बिमारियों जैसे - अनेक के बहरेपन , दृष्टि दोष , गले की कौड़ी का बढना, श्लेमता झिल्लीके निवारण में मदद मिलती है ।

शरीर के साथ - साथ मन पर भी इस यौगिक क्रिया का सकारात्मक प्रभाव आता है । मिर्गी या अपस्मार , उन्माद , विक्षेप, अत्यधिक सिर दर्द , अनियंत्रित क्रोध आदि विकारों पर अच्छा प्रभाव डालता है । यह सुस्ती दूर करके ताजगी लाता है , जिससे शरीर तथा मस्तिष्क में हल्कापन आता है ।


यह श्वास - रंध्र के ऊपर स्थित गंध - पिण्डों को उतेजित करते हुए आज्ञा चक्र के जागरण में सहायता करता है ।

गुरुमाँ



"अरे राम और अल्लाह को
मानने वालों ! जरा हक़ीकत
पर भी तो नजर मारो !
अपनी इन करतूतों से बाहर
आ के जरा पूछो तो सही
राम से , जरा पूछो तो सही
अल्लाह से कि उनकी क्या
मरजी है ! मालिक कि मरजी
क्या है , इसका पता उन्हीं
देहधरी मुरीदों से , अल्लाह
के प्यारों से लग सकता है ।
उन्हीं आशिकों से , उन्हीं
सूफियों से , उन्हीं मौजूदा
सन्तों से लगेगा पता ' उस '
कि मरजी का ! और कौन
बता पायेगा !"