संकल्प



" झर रहा संगीत है मौन के आकाश में
बिना छुए हर वाद्य बजता स्वयं के विश्वास से "
ध्यान की परम स्थिति यह है जहाँ विचार पूरी तरह से चले जाते हैं कुछ लोगों ने लिखा कि हमसे तो ध्यान हो ही नही रहा , मन में बहुत विचार आते हैं , उसके कारण बहुत दुःख होता हैइतनी मुश्किल से आए हैं यहाँ पर,लेकिन यहाँ आकर के भी ध्यान नहीं कर पा रहे

अब समझिये इस बात को ! पूर्ण निर्विकल्पता इतनी सहजता से नहीं होती ! एक दिन में ध्यान को सीख के तुम कहो कि में निर्विकल्पता में पहुँच जाऊँ , तो यह तुम्हारा दिवा स्वप्न ही रह जाएगा मन में हज़ारों नहीं , लाखों नहीं, करोड़ों संस्कार पड़े हुए हैं इसी जन्म के नहीं जन्मों जन्मों के संस्कार हैं , वासनाएं हैं, इच्छाएं हैं

तुम्हारे मन में चार या पाँच दिन के नहीं , चार या पाँच सालों के भी नहीं और चार या पाँच जन्मों के भी नहीं , लाखों जन्मों के संस्कार हैं, तुम्हारे सोचे हुए सारे विचार हैं एक दिन का नहीं यह मामला ! ध्यान में जब आप उतरें , इन बातों का ख़याल रहे - एक , मन कि स्थिति यही है ध्यान में जब विचार आते हैं , तो विचार से कभी भी लड़ें नहीं कि ये क्यों रहा विचार !

मैंने ये कभी नहीं कहा कि आँख बंद करते ही हो गया ध्यान शुरू सिद्ध संतों का ऐसे होता है उनको कुछ करना नहीं पड़ता आँख खुली रहे कि बंद , उनका मन हमेशा शांत ही रहता है लेकिन एक नये आदमी के लिये मैंने जो ध्यान विधियां दी हैं , उनके साथ बैठे , तो लाभकारी होगा

जब आप ध्यान की किसी भी विधि को सौ प्रतिशत ईमानदारी के साथ करते हैं , तो विचार के आने के लिए जगह ही नहीं बचाती ! जब आप मेरी बताई हुई क्रिया को ठीक तरह से नहीं करते हो या आधे मन से करते तो भी विचार आते हैं पूरी - पूरी अटेंशन उस ध्यान विधि को अगर आप देंगे , तो विचार बहुत कम हो जाते हैं

अब आम तौर पर अगर तुम कुछ कर रहे हो और ऐसे ही बैठे हो खाली हो करके , तो शायद एक घंटे में तुम्हारे मन में हजारों विचार आते होंगे आपको पता भी नहीं चलता होगा लेकिन जहाँ तुम ध्यान करने के लिए बैठ जाते हो , तो वे हजारों विचार कुछ सौ तक ही सीमित रह जाते हैं अब यह उपलब्धि हुई की नहीं , बताओ !

जो अभी कई सौ विचार रहे हैं , वो फ़िर कुछ अंकों में गिने जाने योग्य ही आने लगेंगे और फ़िर और कम हो जायेंगे विचार एक दम से तो नहीं चले जाते एक ही दिन में निर्विकल्पता नही मिलती एक ही दिन जाए बच्चा स्कूल और कहे ' मुझको एम् . की डिग्री दे दो ' , तो ये एक दिन में थोड़े डिग्री मिलती है ! सोलह साल जाता रहता है स्कूल कालेज में , इम्तेहान देता है , तब जाके डिग्री मिलती है

विचार आएँ , तो विचारों के प्रति उपेक्षा का भावः रहे उपेक्षा मतलब , मुझे उन विचारों से कोई मतलब नहीं है विचार रहे कि जाए विचारों को उपेक्षा के भावः से देखो जैसे , एक विचार आया कि ' आज ठण्ड लग रही है ' : अब , अगर तुम इस विचार को पकड़ लोगे , तो फ़िर उस विचार के साथ और कई विचार आयेंगे जैसे ' ये दिन ही सर्दी के हैं पता रहता थोड़ा तो और गर्म कपड़े पहन लेते सर्दी में गर्म चीज खानी चाहिए '

ख़याल करना , ध्यान के लिये बैठे थे सिर्फ़ एक विचार आया था कि ' ठण्ड लग रही है ' अब , ठण्ड है तो लगेगी ही ! अगर तुमने उस पहले विचार के साथ ही नाता रखा : क्योंकि 'तुम' तो मन और मन के विचारों से जुदा हो , अलग हो तो तुम अगर अपने अलग पने के भावः में रहे और पहले विचार को अटेंशन का पानी दिया , तो वह विचार लुप्त हो जाएगा

विचार उठा कि 'ठण्ड लग रही है ' , तो ज्यादा से ज्यादा दूसरा विचार यह आएगा कि ' शरीर को ठण्ड लग रही है ' बस ! वहीं विचार लुप्त हो जाता है सर्दी गर्मी को सहन करना भी तो साधना का ही हिस्सा होता है

तो आँख बंद करके बैठे तुम और विचार उठने लगे कि ' सर्दी लग रही है ' , तो अब अगर तुमने तुंरत संकल्प किया कि ,लग रही है ठण्ड तो क्या , शरीर को लग रही है ! सर्दी गर्मी बर्दाश्त करना है ' , तो उस संकल्प में इतना बल होता है कि एक बार आप संकल्प कर लो , तो फ़िर जीरो डिग्री में भी तुमको बिठा दिया जाए , तो वहां भी ठण्ड नहीं लगेगी तुमको

आपके मन में संकल्प कि शक्ति किसी बहाने बन जाए , बस फ़िर कोई अड़चन सामने आएगी नहीं ! तुम गए देवी माता के मन्दिर , तुमने प्रणाम किया फिर कहते हो कि ' इस देवी माँ में बड़ी ताकत है इस ताकत से मेरा बिगड़ा काम सँवरेगा ! ' अब ' मेरा काम सँवरेगा , सँवरेगा ' , बार - बार यही विचार करते - करते वह काम सँवरने का संकल्प गहरा हो जाता है बस ! तुम्हारा काम हो गया !

तुमने कहा 'देवी की कृपा से काम हो गया' मैं ( गुरुमाँ ) कहती हूँ , किसी की वजह से नहीं ! तुम्हारे अपने संकल्प की शक्ति से ही काम होता है पर तुमको अपने ऊपर कोई श्रद्धा नहीं , तुम समझते हो कि ' मैं तो परमात्मा से जुदा हूँ '

संकल्प ! जब तुम संकल्प करते हो , तो उस संकल्प के साथ 'निश्चयकर अपनी जीत करो' ! किसकी विजय होती है ? निश्चये कि ! निश्चय हो तो , तो हार ही हार है ! संकल्पपूर्वक और ईमानदारी से आप ध्यान में बैठो , तो आप अपने भीतर की स्थिति पा सकते हो सौ प्रतिशत विचार तो नहीं चले जायेंगे , लेकिन कम , बहुत कम हो जाते हैं जैसे - जैसे आप संकल्प से अपने भीतर उतरने लगते हैं , वैसे - वैसे ध्यान गहरा और विचार कम , और कम होते जाते हैं,

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