मुक्ति

अक्सर लोग पूछते हैं -" जिसका पुत्र न हो तो उसका दाह संस्कार कौन करेगा ? और दाह संस्कार न होगा तो जीव को गति कैसे होगी ?" पुत्र तो होना जरुरी है ।

कर्म कांड और शास्त्र की दृष्टि से देखते हो और तुम क्या मानते हो मैं ( गुरुमाँ ) ये नहीं जानती , पर हकीकत और यथार्थ की बात कह रही हूँ और यथार्थ यह है की हर जीव अपनी सदगति ख़ुद अपने शुभ कर्मों से करता है । किसी लड़के के दाह संस्कार करने पर तुम्हारी गति नहीं होने वाली । अगर पुत्रों के दाह संस्कार करने पर स्वर्ग की प्राप्ति होती तो जो संन्यासी जिनके पुत्र कोई नहीं , आजीवन ब्रह्मचारी रहे वो तो बेचारे नर्को में ही रहेंगें क्योंकि उनके तो कोई लड़का ही नहीं ।

लोग ये सोचते हैं की एक आदमी मर गया तो उसके मरने के बाद अगर हम उसके नाम पर दान , तप करते हैं तो उसको अच्छी जगह मिल जायेगी स्वर्ग में । मैं कह देना चाहती हूँ आप स्वर्ग में होंगे कि नर्क में होंगे उसका दारोमदार ख़ुद आपके ऊपर है न कि किसी ऐसे गैरे नत्थु खैरे के दो चार मंत्रों के पड़ लेने पर तुम स्वर्ग में नहीं पहुँच जाओगे । मेरे बात कड़वी लगेगी बहुत लोगों को , पर सच तो यही है।

कबीर साहब सारी जिन्दगी बनारस में रहे हैं , सारी जिन्दगी गंगा किनारे बिताई , और लड़ते रहे लड़ाई अज्ञान और ज्ञान की उस समय के तथाकथित पंडितों और मौलवियों के साथ । क्योंकि कबीर की बात किसी के गले नहीं उतरने वाली थी । जब कबीर की बात किसी के गले नहीं उतरती थी । तब कबीर ये कहते -

" अवल्ल ल्लाह नूर उपाया ,
कुदरत के सब बन्दे
एक नूर ते सब जग उपजाया ,
कौन भले कौन मंदे
लोगा भरम भूलो भाई ,
खालक खल
खलक में खालक पूर रहो सब थाईं
कबीर मेरे शंका नासी ,
मैं आकुल निरंजन डीठा "

आकुल निरंजन देखता हूँ सब में । एक उसी अल्लाह से सबकी पैदाइश हुई है । एक ही नूर की हम सब किरणें हैं । एक ही मिट्टी के हम सब बर्तन हैं । एक माटी से निकले हैं । कौन हिन्दु ? कौन मुस्लिम ? कौन ऊँचा ? कौन निचा ? पर कबीर की ये बात किसी के गले नहीं उतरती । लोग दुश्मन हो गए कबीर के , लोग लड़ने मरने पर उतारू हो गए । पर कबीर अडिग रहे बनारस में । पर जब उनकी उमर काफ़ी ज्यादा हो गई , जब मरने का समय नजदीक आने पर कबीर ने कहा अपने शिष्यों से , अब मुझको तुम मघहर ले चलो । अब मैं मघहर में जाकर मरूँगा ।

सब लोग बड़े हैरान । दूर-दूर से लोग मरने के लिए बनारस आते हैं,कांशी आते हैं । आप सारी जिन्दगी काशी रहे और अब जब मरने की घड़ी आई है तो मघहर में ! क्या आप जानते हैं मघहर को श्राप है ? ऐसे कहानी है , दंत कथा है ऐसे कि जो मघहर में मरता है वो गधा होता है ।

कबीर कहते , " मैं जाऊँगा तो मघहर ही जाऊंगा । मरूँगा तो मघहर में ही मरूँगा । "

उन्होंने पूछा - "क्यों ? काशी में क्यों नहीं ? "

कबीर ने बड़ा अनमोल वचन दिया । और मैं कहूँगी - इतनी जुर्रत जो है वो किसी खाली दिमागदार विद्वान , किसी किताबों के ज्ञाता , किसी शास्त्री के भीतर .................. । सोच भी नहीं सकता वो कभी स्वप्न में जो कबीर ने बात कही ।

कबीर ने कहा - अगर मैं काशी में मरूँगा तो कहने वाले कहेंगे कि कबीर मुक्त हुआ चूँकि काशी में मरा पर मैं जानता हूँ , कबीर मुक्त हुआ गुरु के वचन से ईशवर ही कृपा से , न कि खाली काशी में मर जाने से । इसलिये मैं मघहर में मरूँगा ताकि देख ले दुनिया कि मुक्ति के लिए बनारस में मरना जरुरी नहीं। अगर तुम मुक्त पुरूष हो ........ ।

पंचद्शीकर में , स्वामी विद्यानंद जी ने लिखा है - " कि ब्रह्मचारी हाय हाय करता हुआ भी मरे तो वो जीवन मुक्त है । ब्रह्मज्ञानी रोते हुए शरीर के कष्ट में भी हाय हाय करता मरे तो भी उसकी अधोगति नहीं होती , तो भी वो अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है । "

कबीर ने कहा , " मैं नहीं मरूँगा बनारस में इसलिए कि बनारस के लोग जान लें और कुल दुनिया भी समझ ले कि आदमी कि सदगति होगी तो वो साधना से , गुरु की कृपा से , ईशवर कि कृपा से , ईशवर के प्रताप से , नाकि बनारस में जाकर मरने से और न ही पुत्र द्वारां ही अग्नि देने से । इसलिये हे बन्दे अगर मुक्ति चाहिए तो अच्छे कर्म कर ,साधना के मार्ग पर चल,गुरु कि कृपा का पात्र बन ।

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