क्या है प्राणायाम

प्राण का अर्थ है ऊर्जा । इस ऊर्जा से सारा स्थूल , भौतिक जगत हुआ है । और इसी प्राण ऊर्जा से यह हमारा स्थूल शरीर भी हुआ है । अगर मनुष्य के शरीर में से एक सैल निकालकर माइक्रोस्कोप में रख कर देखो तो क्या दिखेगा । मॉस , अगर आप मॉस को फ़िर वापिस विघटित करें तो उसमे से निकलेगा एटम । विज्ञानं कहता है कि उसमें से ऐसी ऊर्जा निकलेगी जो हमारी समझ के बाहर है ।

प्राणायाम का अर्थ है अपनी - प्राणऊर्जा को विस्तारित करना । चीन में प्राण को ' ची ' कहते हैं । एक्युप्रेशर , एक्यूपंचर इसी ऊर्जा के आधार पर है । इनकी थ्योरी कहती है कि हमारे शरीर में मैरीडियन हैं , जिनमे ऊर्जा प्रवाहित हो रही है । जब जब यह ऊर्जा कहीं ब्लाक हो जाए , तब रोग होते हैं । अब अगर आप शरीर का चीर - फाड़ करके देखें तो ऐसी कोई मैरीडियन दिखेगी नहीं । परन्तु जिसे वह मैरीडियन कहते हैं या योग में जिसको नाड़ी कहते हैं , वह भौतिक नहीं है , वह स्थूल नहीं है ; बल्कि सूक्ष्म है ।

हमारी एक नसें हैं जो जो स्थूल रूप में दिखाई पड़ रही हैं । पर दूसरी स्थूल प्रवाह की नसें हैं , जिसमेसे प्राणऊर्जा दौड़ रही है । अब इसी प्राण के पाँच प्रकार हैं - अपन , व्यान , उदान , समान , प्राण । हमारा पूरा शरीर इसी प्राण के अधर पर चल रहा है । प्राण वायु का क्षेत्र कंठनली से श्वासपटल के मध्य है , इसको यह प्राणवायु कंट्रोल करता है ।

अपान नाभि के नीचे जितने अंग हैं , इनकी कार्य प्रणाली को अपानवायु नियंत्रित करता है । जो कुछ हम खाते हैं उसको पचाना और जो व्यर्थ है उसे मल - मूत्र के रूप में बाहर निकलना ; यह कार्य अपानवायु से संचालित होते हैं । अपान हुम्र्रे पाचनक्रिया को कंट्रोल करती है , जैसे गालब्लेडर , लिवर , छोटी आंत , बड़ी आंत ; ये सब इसी क्षेत्र में आते हैं ।

उदान - कंठ के साथ जुड़े जितने भी अंग हैं ; आँख , कान , नाक , जीभ , बोलना , स्वाद लेना ; ये ज्ञानेन्द्रियाँ जो हैं , इनके सारे कार्य उदानवायु से होते हैं । जब तक उदानवायु है , तब तक आँखें देखेंगी , कान सुनेंगे , जीभ बोलेगी , नाक सुंघेगा । उदानवायु के द्वारा हमारी जो कर्मेन्द्रियाँ हाथ - पैर और नाभि के ऊपर के सारे अंग ; जैसे हृदये की धड़कन , हृदये की धमनियां आती हैं , फेंफडे यह सब उदान की शक्ति से कार्य करते हैं ।

समान - यह हमारे शरीर के मध्य भाग में होती हैं । अपान और उदान की जो बैलेंसिंग है , यह समान वायु के द्वारा होती है । समान का कार्य बैलेंसिंग का है ।

व्यान - यह प्राण हमारे पूरे शरीर में है । इसको हम सर्वव्यापी भी बोलते हैं । अर्थात जो पूरे शरीर में फैला हुआ है ।

इन पंचप्राणों के भी पाँच उपप्राण हैं - जैसे हिचकी , आंखों का झपकाना , यह भी प्राण से हो रहा है ।

अब प्राणायाम का सीधा सम्बन्ध इन्ही पंचप्राणों से है । पूरे शरीर का कार्य इन पंचप्राणों से हो रहा है और इन पंचप्राणों पर सीधा प्रभाव देता है - प्राणायाम ।


प्राणायाम का मतलब सिर्फ़ श्वास को अन्दर - बहार करना नहीं है , इसका सम्बन्ध सिर्फ़ श्वासों से नहीं है । बल्कि प्राणायाम का सम्बन्ध आपके शरीर में मौजूद इन पंचप्राणों से है और आप देखेंगे की इन पंचप्राणों के ऊपर आपका कंट्रोल पूरा बन जाए । तब तुमारा दिल तब तक धड़केगा , जब तक तुम चाहोगे । अभी तो अचेतन मन से सारा कार्य हो रहा है हमारा मस्तिष्क , हमारा हृदय , ज्ञानेन्द्रियों के सारे कार्य उदानवायु के द्वारा कंट्रोल हो रहे हैं । उदान का क्षेत्र क्या है इसकी समझ आती है प्राणायाम से ।

अब प्राणायाम भी कई प्रकार के हैं

प्राणायाम का मतलब सिर्फ़
श्वास को अन्दर - बहार करना
नहीं है , इसका सम्बन्ध सिर्फ़
श्वासों से नहीं है ।
बल्कि प्राणायाम का सम्बन्ध
आपके शरीर में मौजूद
इन पंचप्राणों से है


जिनमें से कुछ प्राणायाम ऐसे हैं , जिससे शरीर में उष्मा बड़ाई जाती है । कुछ प्राणायाम ऐसे हैं जिससे शरीर में शीतलता बड़ाई जाती है । कुछ ऐसे है जिससे मस्तिष्क की और श्वास की बैलेंसिंग की जाती है ।

बहिरंग के बाद योग के अंतरंग साधन चार हैं । बहिरंग साधन - यम् , नियम , आसन , प्राणायाम के बिना अंतरंग में प्रवेश नहीं हो सकता । जीवन में अस्तेय , सत्य , ब्रह्मचर्य नहीं है तो आसनों का कोई लाभ नहीं । संतोष , तप , स्वाध्याय , ईश्वर - प्रणिधान में गुरु भी समाहित है । ईश्वर या गुरु के बगैर इस मार्ग में प्रवेश सम्भव नहीं है । और इसकी अनुभूति के लिये संतोष , तप बहुत बड़े अस्त्र हैं ।

तो जब यह नियम का पालन करते हुए आसन करते हैं , तो हम आसन द्वारा अपने अन्नमय कोष , मनोमय कोष , प्राणमय कोष को भी प्रभावित कर सकते हैं ।

हमारे शरीर के भीतर मौजूद स्त्राव - ग्रंथियों और कैमिकल के कारण हमारे मूड बनते हैं । इसका मतलब जब तुमारा गुस्सा आया होता है तो गुस्से में भी तुम्हारे गुस्से का कारण तुम्हारा अशुद्ध शरीर है । अशुद्ध को में एक किनारे भी रख दूँ , तो भी में यह कहूँगी की अशुद्ध मस्तिष्क है । इड़ा और पिंगला का बैलेंस नहीं है । सुषुम्ना तो क्या जागृत होगी , सत्य तो यह है की इड़ा भी जागृत नहीं है । बायीं श्वास चलने का मतलब यह नहीं कि तुम्हारी इड़ा चल रही है । और दायीं चल रही हो तो इसका मतलब यह नहीं कि पिंगला चल रही है , क्योंकि इड़ा और पिंगला तो सुप्त हैं , जागृत नहीं हैं उनको भी जागृत करना पड़ता है । और इड़ा और पिंगला को जागृत करने के लिये आसन , प्राणायाम अत्यावश्यक हैं ।

जिनकी इड़ा जागृत हो , वह बहुत क्रियात्मक , रचनात्मक , बुद्धिमान , चिन्ताशील , ग्रहणशील व्यक्ति होता हैं । जितने वैज्ञानिक होते हैं , इनकी इड़ा जागृत होती है । यह कोई चोटी बात अहं है कि तुम कहो कि दायीं नासिका बंद कर बायीं चला लो और कहो कि इड़ा चल रही है , ऐसा नहीं है यह मूलाधारचक्र से प्रारम्भ हो कर आज्ञाचक्र पर समाप्त होती है , यह इड़ा का सूक्ष्ममार्ग है ।

नाड़ी का अर्थ नसें नहीं है । नाड़ी का अर्थ है प्रवाह । मूलाधारचक्र से शुरू हो कर आज्ञाचक्र पर उसका समापन होता है । और इड़ा और पिंगला दोनों ही मूलाधार से प्रारम्भ हो कर आज्ञा तक पहुँचती हैं । एक तीसरी नाड़ी जिसे सुषुम्ना कहते हैं

अगर साधक विशेष
प्रयास करे और अपनी
इड़ा और पिंगला को
जागृत करे , तो जो गुण
उसके पास नहीं है ,
वे भी आ जायेंगे ।

यह भी आज्ञा तक आती है , इसीलिए आज्ञाचक्र को प्रयाग भी बोलते हैं । गंगा , यमुना , सरस्वती ; गंगा है - पिंगला । यमुना है - पीडा और सरस्वती है सुषुम्ना ।

बहार जो भौतिक प्रयाग हैं , यहाँ पर भी सरस्वती दिखाई नहीं पड़ती । परन्तु हिंदू ऐसा मानते हैं कि सरस्वती लुप्त है , अदृश्य है , पर बह रही है । जहाँ गंगा , यमुना , सरस्वती तीनो धारायें मिलती हैं , उसी को कहते हैं प्रयाग । तो एक यह भरी प्रयाग है और एक हमारे भीतर प्रयाग है । जो भीतर प्रयाग है उसको कहते हैं आज्ञाचक्र ।

जिसकी पिंगला जागृत हो वह बहुत कर्मशील व्यक्ति होता है । कर्मशील व्यक्ति निष्काम कार्य करता है । वह कार्य को किसी अर्थ के लिए नहीं करता । अगर वह धन भी कमाएगा तो धन के पीछे भी उसकी धारणा समाज - कल्याण या देश - कल्याण के लिए होगी । जिसकी पिंगला जागृत हो वह एक कुशल राजनेता हो सकता है , योद्धा हो सकता है , एक राजनीतिग्य हो सकता है , आर्मी का जनरल हो सकता है । यह जो लोगों को प्रोमोशंस मिलते हैं , यह ऐसे ही नहीं मिल जाते । उनकी पिंगला जागृत होती है , उनकी पिंगला जागृत होई है इसलिये उनको यह तरक्कियां मिलती हैं । जिनकी पिंगला जागृत होती है उनके लिए प्रकृति ऐसे संयोजन खड़े कर देगी , इसीलिए उनकी उत्तरोत्तर उन्नति होती जाती है ।

जो लोग जीवन में उन्नत नहीं हो पाते , जो कर्मशील नहीं हैं , जो चिंतन - मननशील नहीं हैं ; मतलब यह कि शरीर जरुर उनका मनुष्य का है , पर उनकी न इड़ा जागृत है , न पिंगला । इसीलिए खाए - पीए , भोग , भजन और मृत्यु ; बस उनका जीवन इतना ही है ।

इसका अर्थ यह भी हुआ कि अगर साधक विशेष प्रयास करे और अपनी इड़ा और पीड़ा को जागृत करे , तो जो गुण उसके पास नहीं भी हैं , वे भी आ जायेंगे । इड़ा जागृत होगी तो तुम्हारा मस्तिष्क उन्नत हो जायेगा , चिंतनशील हो जायेगा और चिंतन - मनन वाले व्यक्ति अपने जीवन में बहुत से उपलब्धियों को प्राप्त करते हैं ।

कर्मशील व्यक्ति अपने जावन में सम्मान और प्रतिष्ठा को पाते हैं । उनके लिए जीवन में एक उदेश्य होता है , तो उनकी बौधिक क्षमता विकसित होती है ।

जिसको हम मुर्ख कहते हैं , वह कौन व्यक्ति हैं ? जिनके मस्तिष्क का आधा हिसा सोया होता है । मस्तिष्क का तीन प्रतिशत हिसा तो साधारण लोगों का जगा होता है ।

जब आप आसन , यम , नियम , प्राणायाम अपने जीवन में लेकर आते हैं और प्रतिदिन इसका अभ्यास करते हैं , अगर छ: महीने से एक साल तक बराबर श्रद्धा भाव से शरीर का शुद्धिकरण करते हुए नेति , प्रक्षालन , कुंजल करते रहें तो जीवन में प्रत्याशित उन्नति दिख जायेगी ।

जिनकी इड़ा और पिंगला जागृत होगी , उन्ही के सुषुमाना के जागृत होने कि सम्भावना बनेगी । जिनकी ये तीनो जागृत हैं , वही चक्रों का अनुसंधान कर सकेगा । और जो चक्रों का अनुसंधान करेगा , उसी के कुंडलिनी जागरण हो सकेगा । और जब कुंडलिनी मूलाधार से उठ कर मणिपुर , अनाहद , विशुद्ध , आज्ञा इत्यादी चक्रों का भेदन करती हुई सहस्त्रार तक पहुँचती है , तब यहीं पर पहली सविकल्प समाधि घटित होती है ।

अपना उद्धार अगर चाहते हो तो तुम्हें यह बात समझ लेनी चाहिए कि ज्ञान सुना - सुनाया मात्र कुछ सूचनायें हैं , जो थोडी देर के लिए तुम्हें रस देती हैं । लेकिन उसके बाद तुम्हारे किसी काम की नहीं । वर्षों से सत्संग सुन रहें है , लेकिन सुनना तो बस कानों तक ही गया जीवन का रूपांतरण तो हुआ ही नहीं ।

ज्ञान का प्रतिफलन भी उन्ही को होता है , जिनमे विवेक , वैराग्य , मुमुक्षता , सत्संग आदि गुण होते हैं । जिनमे यह चारों गुण नहीं होते , उनको सिर्फ़ एक अभिमान होता है कि हम ज्ञान सुनते हैं , हमें सब पता है । लेकिन अपने चित्त के , अपने मन के साक्षी तो तुम हो । तो यम , नियम , आसन , प्राणायाम अगर विधिवत् ढंग से अगर जीवन में आए........ अगर केवल प्राणायाम के साथ ही गहरी दोस्ती हो जाए तो आटोमैटिकली जो योग कि पांचवी अवस्था है उसमें प्रवेश हो ही जायेगा । वह है प्रत्यहार ।














आज ध्यान में विचारों के प्रवाह में कविता को उभरते देखा


पत्थर को हीरा और हीरे को पत्थर बनते देखा
कहीं पत्थर को तराशते हुए सदगुरु को देखा
आज ध्यान में विचारों के प्रवाह में कविता को उभरते देखा

अनुभव किया सतगुरु की कृपा को
और हृदय में स्मपन्दित प्रेम को देखा
मन के बदलते हाव - भावः को ,
बहार से कठोर और अन्दर से नर्म सतगुरु को देखा

उल्टे घड़ों को सीधा होते और
फटे दमन में कृपा को सम्भालते देखा
अभिमान को स्वाभिमान में कुछ बदलते और
सतगुरु के निर्देशों पर ख़ुद को ख़ुद - - ख़ुद चलते देखा

अध्यात्म पथ को देखा और
इस पथ पर पहुँचने के लिए अपने को बहुत दूर देखा
आशा - निराशा को देखा और
इनके बीच उभरते धीरज के उजाले को देखा
आज ध्यान में विचारों के प्रवाह में कविता को उभरते देखा
श्रद्धा

ऋषि अमृत दिसम्बर 2003

गुण चुन अवगुण नहीं



" फरीदा ख़ाक निंदिये , खाक जेवड कोए
ज्योंदेयाँ
पैरां तले मोंयाँ ऊपर होए "

पर हम इस बात को कहाँ याद रखते हैं , हमको तो फुर्सत कहाँ हैं , लोगो की कमियां , लोगो के अवगुण , बस वही देखते रहते है । क्या कमी है , क्या कमी है , देखो उसको । फरीद कहते है -

" फरीदा जे तू अकाल लतीफ़ , काले लिख न लेख
आपने गिरबान में सिर नीवां कर देख "

काहे समय गवाओ कि पड़ोस के लोग क्या करते हैं , दुसरे लोग क्या करते हैं , दूसरों कि कमियां , दूसरों के अवगुण देखते फिरो , क्यों ? अरे , किसी बाग़ बगीचे में जाओ तो क्या देखोगे , कांटे कि फूल ? गुलाब कि झाड़ी के करीब भी जाओगे तो काँटों से हाथ बचा बचा के फूलों को तोड़ोगे । कैक्टस काँटों से भरा पौधा है पर किन्ही एक कैक्टस कि प्रजाति में जैसे लोटस कैक्टस , निचे तो कांटे ही कांटे हैं अंतत बहुत सुंदर फूल खिल जाता है , बड़े खुबसूरत रंगों में फूल खिलता है । कैक्टस के लगे हुए फूल को भी अगर लेना चाहोगे तो बड़ा बचा के उसको तोड़ोगे , काँटों से हाथ को बचा के फूल को तोड़ लोगे ।

अगर बगीचे से तुम फूल चुनते हो और काँटो को छोड़ देते हो तो मनुष्य के गुणों को चुनों , उसके अवगुणों को छोड़ दो । पर तुम बन जाते हो समाज सुधारक । हम निकलें है समाज को सुधारने । भई, पहले अपने आप को तो सुधार ले । गंदे पोचे से जमीन को साफ़ करने लगोगे तो जम्में साफ़ नहीं उल्टे और गन्दी हो जायेगी । पोछा पहले साफ़ करलो । गंदे झाडन से आप साफ़ चीज को भी और गन्दा कर लोगे । गुरु अर्जुन देव जी ने सुखमनी साहब में बड़ा सुंदर कहा -
'अवर उपदेशे आप करें , आवत जावत जन्मे मरे '

दूसरों को उपदेश दे रहा है सुधर जाओ , माया छोड़ दो । गा रहे हैं - ' माया छड जानी । पीछे सब बोल रहे हैं , माया छड जानी' ख़त्म हुआ कीर्तन तो कहते , माया कित्थे ? ओ लिफाफा कित्थे है ? सवा लाख रुपये कि बात हुई थी ये तो कम लग रहे हैं , ये पूरे पैसे दो जी । एक ने कहा - अभी तो आपने गया है, ' माया छड जानी ' तो २००० अगर कम है तो उसको तो छोड़ जाओ । वो कहते , ये दूसरों को सुनने के लिये कहते हैं ' माया छड जानी , हमको ले के जानी ' दुसरे छोडे हम थोड़े छोडेंगे ।

'अवर उपदेशे आप करें , आवत जावत जन्मे मरे '

उपदेष्टा है , कथा करता है , उपदेष्टा है , संसार को उपदेश दे रहा है । एक ने कहा महाराज - ! घर में चरण डालो , सेवा का मौका दो । कहते - ' अच , फ़िर हमारी सेवा क्या करोगे ?

तो सेवा मोटी दिखती हो तो जाता है और सेवा मोटी न दिखती हो तो नहीं जाता । बैठ के उपदेश दे रहा है ।

पर कभी कभी ऐसे वक्ताओं के विषये में मैं ये करती हूँ , चलो कोई नहीं , बाल बचे पालने हैं उसको , डेरा स्थान चलाना है , आश्रम चलाना है , कोई नहीं जो कर रहा सो कर रहा पर जितनी देर ढंग कि कुछ बात कह रहा है वो ढंग की बात को तो पकड़ लो । सर्वगुण संपन नहीं है तो कोई बात नहीं , उसके उतने हिस्से को ले लो जितने हिस्से को वो कह रहा है । वो माया छोड़ रहा है कि नहीं छोड़ रहा , अगर उसकी कही हुई बात को सुनके आपने माया से फंदा छुडा लिया तो गुरु जी तो बंधे रह जायेंगे बंधन मैं , चेले जी मुक्त हो जायेंगे ।

" फरीद जे तो अक्ल लतीफ़ , काले लिख न लेख
आपने गिरबान में सिर नीवां कर देख "

अपने अन्दर झाँक के देख , दूसरों को नुख्ताचीनी न करो । नुख्ताचीनी करने की आदत है तो अपनी और नुख्ताचीनी करके देख ले कि इधर क्या कमियां हैं । पर हम अपनी कमियाँ नहीं देख पाते हैं , दूसरों कि दिख जाती हैं ।

ऋषि अमृत मार्च 2002

रूमी



'रूमी' नाम है उस परवाने का जो उस रब की शमा पर मर मिटा सदा के लिए अमर हो गया । रूमी एक सूफी है और सूफी कीसी इंसान का नाम नहीं है , सूफी नाम है प्रेम का !

तुर्किस्तान मैं पैदा हुए इस जलालुद्दीन रूमी नाम के सूफी के बारे में बचपन में ही भाविश्येवानी कर दी गई थी - यह जलालुद्दीन अपने सागर के वलवलों में अपनी लहरों में कितनों को अल्लाह वाला कर देगा ।

और हकीक़त थी । आलिम और फाजिल रूमी के दिल में प्रेम की शमा जलाई इनके प्रियतम सद्गुरु शम्स तबरीज़ ने । जब इस मुहबत रुपी चिंगारी ने आग पकड़ी तो रूमी नाचते हैं , बजाते हैं । मुस्लिम धर्म में नाचना - बजाना शरा - शरीयत के विरुद्ध है । वह यह भी भूल गए और उन्होंने संगीत और शायरी को अल्लाह के ज़िक्र में जोड़ दिया ।

उन्होंने कहा था , ' मेरे टेके में बेनदीर के बिना तुम आओगे ' उन्होंने यह बात कही कि संगीत सिर्फ़ कानों का रस लेने कि विद्या नहीं है । यह तो अल्लाह से जुड़ने का जरिए है ।

उन्होंने हजाओं कवितायें और कहानियाँ लिखीं । उन्ही कविताओं के माध्यम से ज्ञान के सूत्र दिए । परमपूज्य गुरुदेव आनंदमूर्ति गुरुमाँ ने जब इन कविताओं को पड़ा , तो उन्होंने इतने सहजता से इनका हिन्दी अनुवाद किया , जैसे वे इन कविताओं का अनुवाद नहीं कर रहे थे , ये कवितायें उनके भीतर से प्रस्फुटित हो रहीं थी । इस पर सोने पर सुहागे का काम किया संगीत ने , जो इन कविताओं के साथ जुडा और एक नई एल्बम "रूमी" नाम से हम शिष्यों के लिए प्रसाद रूप से आ गई ।

यह एल्बम गुरुमाँ कि हम सब को एक अनमोल भेंट है , जिसमें सुंदर व् दिल को छूने वाली कविताओं का उचारण है । इन कविताओं में छुपे प्रेम , दर्द , विरह के भावों को वाही महसूस करे , जो इसे सुने क्योंकि शब्दों में उस अहसास को नहीं बाँधा जा सकता।
ऋषि अमृत पत्रिका मार्च 2006

शक्ति के उपासक क्यों लगाते हैं जननी के जन्म पे अंकुश


कोलकाता -- दुर्गा और काली के देश में हो रहा है जननी का अपमान। इस देश में लोग जहाँ नारी की पूजा करते हैं वहीं उस के जन्म पर अंकुश भी लगाते हैं। कोलकाता वासियों पर अमृत वर्षा बरसाने आए आनंदमूर्ति गुरुमाँ ने पत्रकारों से हुई खास बातचीत में कहा कि :

पत्रकार : गुरुमाँ , सबसे पहले ये बताए की इस पुरुष प्रधान बताए जाने वाले देश में धारा से अंबर तक की आपकी यात्रा क्या आसान रही?
गुरुमाँ - मेरे और मेरे अनुयाइयों के बीच वीश्वास ही है। इसी के माध्यम से मैं सबको रूढ़िवाद की राह पर नहीं, बल्कि परंपरा व संस्कृति की राह तक पहुचाती हूँ । सफलता की राह में समस्याएं तो अनगिनत आईं, लेकिन आत्मविश्वास और दृढ़ता ने मुझे इस मुकाम तक पहुचाया। अभी तक कभी किसी पुरुष ने मेरा मार्ग प्रत्यक्ष रूप से नहीं रोका है। अगर भविष्य ने ऐसा कुछ दिखाया तो स्वयं को किसी से कम नहीं मानूँगी।
पत्रकार : क्या आपको लगता है कि भारत में परंपरा के नाम पर महिलाओ को दबाया जाता है ?
गुरुमाँ - हम भारतवासीयों को परंपरा व संस्कृति विरासत में मिली है, लेकिन इसके नाम पर महिलाओ को जबरन दबाया जा रहा है। हमारी संस्कृति में औरत को शक्ति का रूप माना गया है लेकिन 21 वी सदी के भारत में आज भी इसके नाम पर औरतो को अबला, कमजोर, अशुद्ध, आश्रित और अज्ञानी ही बनाया जा रहा है । औरत को शक्ति और पराक्रम का पाठ कोई नहीं पढ़ाता क्योंकि पुरुष स्वयं को उपर रखने के लिए सबला को भी अबला की उपाधि देता है ।
पत्रकार : क्या आपको लगता है कि ग्रामीण भारत में अज्ञानता के अधिकार पर ज्ञान की रोशनी डालना आसान है ?
गुरुमाँ - अज्ञानता के अंधकार पर ज्ञान की रोशनी डालना यूँ तो कभी आसान नहीं होता लेकिन मैने देखा है कि ग्रामीण महिलाएँ आगे आने को तैयार हैं, बस उन्हे एक आवाज़ लगाने की देर हैं । मेरा अनुभव बताता है कि ग्रामीण महिलाओं को राह दिखाना शहरी नारियों के मुक़ाबले अधिक आसान है। मैं अध्यात्म के दृष्टिकोण से महिलाओं को सशक्त बनाने की कोशिश करती हूँ और अब तक इस कोशिश में कामयाब भी रही हूँ ।
पत्रकार : नारी को सशक्त बनाने के लिए दिए गये प्रवचनो को सुनकर पुरुषों की क्या प्रतिक्रिया होती है ?
गुरुमाँ - किसी भी इंसान में समझ का अभाव नहीं होता, बस फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि कौन क्या समझना चाहता और क्या करना चाहता है । मैं यह तो नहीं कहती कि पुरुष को महिलायों के नीचे रहना चाहिए । मैं पुरुषों को सिर्फ़ यही कहती हूँ कि आप महिला को इज़्ज़त तथा उसे उसका उचित स्थान दें ।
पत्रकार : आपके अनुसार आगे बढ़ रहे समाज में महिलाओं को अनजाने में भी अनदेखा किया जा रहा है?
गुरुमाँ - अनजाने में ही उनको कम जान कर अनदेखा किया जाता है । मैं एक ऐसी युवती को जानती हूँ जिसने अपने पिता से झगड़ कर बाहर जाकर डाक्टरी कि पढाई की । इसके बाद उसने शादी की लेकिन शादी के बाद डाक्टरी छोड़ दी और अपने पति की फॅक्टरी में उसके साथ काम करने लगी । वह पिता से तोलड़ पाई लेकिन अपने जीवन साथी का विरोध नहीं कर पाई । इसी प्रकार कई महिलाएँ ऐसे ही अपनी इच्छाओं को दिल में दबा कर जी रही हैं ।
पत्रकार : अगर अध्यात्म की बात करें तो आज की भागती हुई ज़िंदगी को स्थिरता कैसे मिल सकती है ?
गुरुमाँ - इसका एक सीधा सा तरीका है, अपने आप से प्रश्न करो... पूछो खुद से तुम्हारा जन्म क्यों और किसलिए हुआ है? तुम्हे क्या करना है? इसी प्रकार किसी को भी संतुष्टि मिलती है और वह केवल सांस लेना ही नहीं बल्कि जीवन् को जीना सिखाती है ।
पत्रकार : क्या आपको लगता है कि आजकल अधिकांश गुरु सेलेब्रिटी (हस्तियों ) के गुरु ही बनकर रह गये हैं ?
गुरुमाँ - ऐसा कहा जा सकता है । लेकिन मुझसे से पूछो तो मुझे लगता है जो अपने जीवन को सेलेब्रेट करता है वही सेलेब्रिटी होता है ।
पत्रकार : क्या आपको लगता है कि राजनीति में धर्म का इस्तेमाल हो रहा है ?
गुरुमाँ - कुछ राजनेता अपने स्वार्थ के लिए धर्म के नाम पर लोगों को भड़काते हैं। धर्म आपको संस्कृति और मर्यादा प्रदान करता है जिससे राजनीति कोसों दूर रहती है ।
पत्रकार : एक आख़िरी सवाल, महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए आपकी परियोजना 'शक्ति' किस प्रकार काम कर रही है ? फीमेल फिटीसाइड को रोकने का प्रयास किस प्रकार जारी है ?
गुरुमाँ - आँकड़े बताते हैं कि 1947 से लेकर अब तक देश में करीब 3.5 करोड़ लड़कियाँ गायब हुई हैं । माना जा सकता है कि पुरुष प्रधान समाज ने उनकी बलि दे दी होगी । 'शक्ति' नारियों को उनका स्थान देने के लिए काम कर रही है। पिछड़े इलाक़ों में महिलाओं को साक्षरता उपलब्ध कराना सबसे बड़ा अभियान है । गत वर्ष करीब 225 युवतियों को आर्थिक मदद देकर उन्हे साक्षर बनाया गया ।
संमार्ग - महानगर (फ़रवरी 3, 2009), कोलकाता

प्रभु लगन

परमात्मा से दिल का प्यार
उस
प्रभु से मन की लगन
उस
दाते से दिल का भाव जुड़ जाना
दुनिया की सबसे बडी नेमत है
और सबसे बडी बरकत है
जो किसी इंसान को मिल सकती है
याद रखना इस बात को
आदमी की निगाह में संसार की बड़ी कीमत है.
लेकिन ज्ञानियों ने सदा इस संसार के रचनहार की
कीमत को, बड़ी कीमत आँका है
संसार की कीमत को नहीं
जगत की कीमत सिर्फ़ उतनी देर तक है
जब तक इस जगत की अधिष्ठाता,
इस जगत का आधार, इस जगत का अधिष्ठान,
वो सत्य चेतन आधार में है

--गुरुमाँ --

ऋषि अमृत मार्च 2001

सत्य की अनुभूति कब होगी ?


सत्य को पा लेना ही परमात्मा के प्रेम में जाग जाना हैं । यह कार्य दुर्लभ है । सत्य को पाने की राह करोड़ों लोग चलते हैं । पर कोई विरला ही इसे प्राप्त करता है , क्योंकि इस सत्य को पाने के लिए मानव जो कुछ भी कर रहा है सब उपर उपर से कर रहा है , मन से नहीं कर रहा है , प्राणों से नहीं कर रहा , आत्मा से नहीं कर रहा । मंदिर भी जाते , मस्ज़िद भी जाते , चर्च भी जाते , गुरुद्वारे भी जाते , तीर्थ भी जाते , पर हर जगह शरीर से । साधु संतों के आध्यात्मिक प्रवचनों में भी पहुँच कर कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । क्योंकि आत्म निरीक्षण नहीं है , कोई चिंतन नहीं है , पीडाओं पर मंथन नहीं है , जीवन में कोई स्पन्दन नहीं है ।

मानव समाज को आधायात्मिक शक्ति प्रदान करने की कोई लालसा नहीं है । मन का क्लेश अगर ज्यों का त्यों रहेगा , तो लाख सवारो तन को , क्या होगा ? यदि हमने जीवन को नहीं सहलाया , किसी भूले भटके को सही राह पर नही चलाया , किसी गिरे को नहीं उठाया , फिर चाहे हम हर तीर्थ नहाएँ , मंदिर में नमन करें , क्या होगा ? सत्य की अनुभूति तो दूर , स्वयं को जानने समझने का विचार तक मन में नहीं आएगा ।

जीवन की बगिया सुरक्षित तब होगी , सत्य की अनुभूति तब होगी , जब भीतर बाहर एक ही स्वर चले , भीतर बाहर एक ही सुगंध उठे । सिर परमात्मा के श्रीचरणों में झुके । शरीर से किया गया हर जप तप , पूजा पाठ अंतर्मुखी होकर संसार रूपी परीधी से अपने केंद्र कि ओर आए ।

सत्य की अनुभूति तब होगी , जब वह जड़ से चेतन की यात्रा करे , स्थूल से सूक्ष्म का मार्ग ढूँढे , सीमित से निकल कर असीमित हो । क्योंकि जलने वाली आग भी अंतस में है , जलाने वाली लकड़ियाँ भी । दूसरों के हृदये में पवित्रता , प्रेम के बीज बो कर ही हम अंतर्मन में सत्य , प्रेम व करुणा के अंकुर प्रस्फुटित कर सकते हैं । तभी हम देह से उपर उठकर विदेह की स्थिति तक पहुँचेगे ।

ऋषि अमृत , मई 2006