आज ध्यान में विचारों के प्रवाह में कविता को उभरते देखा


पत्थर को हीरा और हीरे को पत्थर बनते देखा
कहीं पत्थर को तराशते हुए सदगुरु को देखा
आज ध्यान में विचारों के प्रवाह में कविता को उभरते देखा

अनुभव किया सतगुरु की कृपा को
और हृदय में स्मपन्दित प्रेम को देखा
मन के बदलते हाव - भावः को ,
बहार से कठोर और अन्दर से नर्म सतगुरु को देखा

उल्टे घड़ों को सीधा होते और
फटे दमन में कृपा को सम्भालते देखा
अभिमान को स्वाभिमान में कुछ बदलते और
सतगुरु के निर्देशों पर ख़ुद को ख़ुद - - ख़ुद चलते देखा

अध्यात्म पथ को देखा और
इस पथ पर पहुँचने के लिए अपने को बहुत दूर देखा
आशा - निराशा को देखा और
इनके बीच उभरते धीरज के उजाले को देखा
आज ध्यान में विचारों के प्रवाह में कविता को उभरते देखा
श्रद्धा

ऋषि अमृत दिसम्बर 2003

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