सत्य की अनुभूति कब होगी ?


सत्य को पा लेना ही परमात्मा के प्रेम में जाग जाना हैं । यह कार्य दुर्लभ है । सत्य को पाने की राह करोड़ों लोग चलते हैं । पर कोई विरला ही इसे प्राप्त करता है , क्योंकि इस सत्य को पाने के लिए मानव जो कुछ भी कर रहा है सब उपर उपर से कर रहा है , मन से नहीं कर रहा है , प्राणों से नहीं कर रहा , आत्मा से नहीं कर रहा । मंदिर भी जाते , मस्ज़िद भी जाते , चर्च भी जाते , गुरुद्वारे भी जाते , तीर्थ भी जाते , पर हर जगह शरीर से । साधु संतों के आध्यात्मिक प्रवचनों में भी पहुँच कर कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । क्योंकि आत्म निरीक्षण नहीं है , कोई चिंतन नहीं है , पीडाओं पर मंथन नहीं है , जीवन में कोई स्पन्दन नहीं है ।

मानव समाज को आधायात्मिक शक्ति प्रदान करने की कोई लालसा नहीं है । मन का क्लेश अगर ज्यों का त्यों रहेगा , तो लाख सवारो तन को , क्या होगा ? यदि हमने जीवन को नहीं सहलाया , किसी भूले भटके को सही राह पर नही चलाया , किसी गिरे को नहीं उठाया , फिर चाहे हम हर तीर्थ नहाएँ , मंदिर में नमन करें , क्या होगा ? सत्य की अनुभूति तो दूर , स्वयं को जानने समझने का विचार तक मन में नहीं आएगा ।

जीवन की बगिया सुरक्षित तब होगी , सत्य की अनुभूति तब होगी , जब भीतर बाहर एक ही स्वर चले , भीतर बाहर एक ही सुगंध उठे । सिर परमात्मा के श्रीचरणों में झुके । शरीर से किया गया हर जप तप , पूजा पाठ अंतर्मुखी होकर संसार रूपी परीधी से अपने केंद्र कि ओर आए ।

सत्य की अनुभूति तब होगी , जब वह जड़ से चेतन की यात्रा करे , स्थूल से सूक्ष्म का मार्ग ढूँढे , सीमित से निकल कर असीमित हो । क्योंकि जलने वाली आग भी अंतस में है , जलाने वाली लकड़ियाँ भी । दूसरों के हृदये में पवित्रता , प्रेम के बीज बो कर ही हम अंतर्मन में सत्य , प्रेम व करुणा के अंकुर प्रस्फुटित कर सकते हैं । तभी हम देह से उपर उठकर विदेह की स्थिति तक पहुँचेगे ।

ऋषि अमृत , मई 2006

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